Thursday, December 2, 2010

बिहार

तो बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश, बीजेपी एंड कंपनी ने 243 में से 206 यानी तकरीबन 85 फीसदी सीटें जीत लीं। लेकिन शायद इससे भी ज्यादा चौंकाने वाला प्रदर्शन तो कांग्रेस का था। 2005 में कांग्रेस ने 51 सीटों से चुनाव लड़ा था और 9 पर जीत हासिल की थी। इस बार उसने सभी 243 सीटों से अपने उम्मीदवार खड़े किए और हाई प्रोफाइल प्रचार अभियान चलाया, लेकिन इसके बावजूद वह केवल 4 सीटें ही जीत पाई। बिहार के सभी कांग्रेस लॉ मेकर अब बड़े आराम से एक नैनो कार में समा सकते हैं। यह हालत उस पार्टी की है, जो केंद्र में काबिज है।

नीतीश की लहर, भाजपा के प्रति मतदाताओं का रुझान, लालू से नाराजगी, जातिगत समीकरण से ऊपर उठने की कोशिश करते बिहार के मतदाता और विकास के पक्ष में जनादेश। अगर इन सबके मद्देनजर बिहार के क्लीन स्वीप पर गौर करें तो माना जा सकता है कि बिहार एक क्रांति के दौर से गुजर रहा है। अलबत्ता वोटिंग के वास्तविक आंकड़ों पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। बिहार में नीतीश-भाजपा गठबंधन ने 39 फीसदी वोट हासिल किए यानी 2 करोड़ 90 लाख वोटों में से 1 करोड़ 10 लाख वोट (सरलता के लिए आंकड़ों को राउंड फिगर में कर दिया गया है)। इसकी तुलना उन लगभग 1 करोड़ लोगों या 34 फीसदी वोटों से करें, जो लोजपा, राजद या कांग्रेस के खाते में गए।

लोजपा, राजद और कांग्रेस पहले भी आपस में गठजोड़ कर चुके हैं। उन्हें एक-दूसरे का करीबी माना जा सकता है और निश्चित ही वे नीतीश-विरोधी हैं। अगर वोटिंग के आंकड़ों पर गौर करें तो नीतीश कुमार को मिला जनादेश उतना भव्य नजर नहीं आता।

इसके क्या मायने हैं? क्या नीतीश और भाजपा को बिहार में अपनी जीत का जश्न नहीं मनाना चाहिए? क्या इसका यह मतलब है कि अविश्वसनीय चुनाव परिणाम महज एक विचित्र संयोग भर थे?

बहरहाल, इससे तो कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव में बिहार के मतदाताओं का झुकाव नीतीश और भाजपा के पक्ष में रहा और उन्होंने लालू और उनके तमाम भाई-बंधुओं के विरुद्ध वोट दिया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विजेता खुद को आरामदेह स्थिति में महसूस कर सकते हैं या आत्मसंतुष्ट हो सकते हैं। न ही इसका यह मतलब है कि पराजितों का सूपड़ा साफ हो गया है। वास्तव में वर्ष 2009 के आम चुनाव में भी अमूमन यही स्थिति थी। चुनाव में यूपीए को स्पष्ट विजेता बताया गया था, लेकिन वोटों के अनुपात के आंकड़े कुछ और ही कहानी बयां करते थे। भारत में चुनाव इसी तरह होते हैं और कोई भी पार्टी अपनी स्थिति को हल्के में नहीं ले सकती। बिहार के चुनाव से दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस को सबक सीखने चाहिए और मतदाताओं को भी।

जहां तक भाजपा का सवाल है (जो अब केंद्र पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है), उसे आत्मसंतोष की स्थिति से बचना चाहिए। यह सच है कि हवा का रुख उनकी तरफ है, लेकिन यह अब भी कोई आंधी नहीं है। कर्नाटक जैसी घटनाएं उनकी राह में रोड़ा साबित हो सकती हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री को हटाने से पार्टी को नुकसान हो सकता था, लेकिन उन्हें नहीं हटाने पर भाजपा को इसका और ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि यह ‘ब्रांड बीजेपी’ को चोट पहुंचा सकता है और उस तमाम वैधता और परिपक्वता को नुकसान पहुंचा सकता है, जो उसने पिछले एक वर्ष में अर्जित की।

कांग्रेस को यह सबक सीखने की जरूरत है कि उसे किस तरह के सहयोगियों के साथ नाता रखना है, क्योंकि बुरे सहयोगियों के न होने के बाद भी उनके बुरे प्रभाव देर तक बने रहते हैं। बिहार में कांग्रेस ने अकेले ही चुनाव लड़ा था, लेकिन मतदाता लालू-कांग्रेस गठजोड़ को भुला न सके। कांग्रेस के लिए इस बारे में विचार करना भी जरूरी है कि राहुल गांधी का किस तरह इस्तेमाल किया जाए। बिहार में उनके प्रचार अभियान का कोई असर नहीं पड़ा। उनका व्यक्तित्व आकर्षक है और निश्चित ही वे एक अच्छे खानदान से वास्ता रखते हैं, जो कि भारतीयों को पसंद है।

आमजन के साथ घुलने-मिलने के उनके प्रयासों को भी सही ठहराया जा सकता है। शायद इतना सब करने के बाद उन्हें यह लगे कि वे भविष्य के प्रधानमंत्री हो सकते हैं, लेकिन दबी जुबान से अब यह सवाल पूछा जाने लगा है कि उन्होंने अभी तक आखिर किया ही क्या है? राहुल गांधी को जल्द ही कोई ठोस जिम्मेदारी लेनी चाहिए और उसमें अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करना चाहिए। उन्हें युवाओं के आदर्श के रूप में प्रचारित जरूर किया गया, लेकिन उन्होंने इतने बड़े-बड़े घोटालों में अपनी पक्षधरता स्पष्ट करने का कोई प्रयास नहीं किया। शायद उन्हें बेदाग बनाए रखने के लिए रणनीतिपूर्वक उनसे चुप रहने को कहा गया हो, लेकिन आखिर कौन यूथ आइकॉन ऐसा होगा, जो देश को लूटे-खसोटे जाने के बावजूद चुप्पी साधे रहेगा? युवा पीढ़ी उनसे उम्मीद कर रही थी कि वे एक ठोस बयान देंगे या कम से कम गलतियों को स्वीकारते हुए अपनी विनम्रता का परिचय तो देंगे ही। इसके उलट उनकी हालिया छवि तो यह है कि वे अपने ब्लैकबेरी से खेलते हुए पत्रकारों के सवालों से कतराकर निकल रहे हैं।

हालांकि बिहार का सबसे जरूरी सबक तो मतदाताओं के लिए है। मैं प्रबुद्ध भारतीय मतदाता उसे कहता हूं, जो शिक्षित हो, जाति, धर्म या समुदाय के आधार पर वोट नहीं देता हो, जो किसी एक राजनीतिक दल का बंधक न हो, जिसका अपना एक स्वतंत्र दृष्टिकोण हो और जो राजनीतिक दलों के प्रदर्शन के आधार पर ही उन्हें वोट देता हो। यदि आप यह कॉलम पढ़ रहे हैं तो आप एक प्रबुद्ध मतदाता के रूप में अपना आकलन कर सकते हैं। अब जरा प्रबुद्ध मतदाता की तुलना निष्क्रिय मतदाता से करें। निष्क्रिय मतदाता वह है, जो अव्वल तो वोट ही नहीं देता, और अगर देता भी है तो उस राजनीतिक दल को, जिसका उसके परिवार द्वारा परंपरागत रूप से समर्थन किया जाता रहा है।

या वह किसी ऐसे उम्मीदवार को वोट देता है, जो उसकी जाति या धर्म का है, या जिसने चुनाव के ऐन पहले उसे शानदार पार्टी दी है। निष्क्रिय मतदाता सरकार के प्रदर्शन का आकलन नहीं करता। जाहिर है आज भी भारत में प्रबुद्ध मतदाताओं की तादाद निष्क्रिय मतदाताओं की तुलना में बहुत कम है और इसका कारण है शिक्षा का अभाव, जागरूकता में कमी और पक्षपात की प्रवृत्ति। लेकिन प्रबुद्ध मतदाताओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। पिछले आम चुनाव में 30 करोड़ लोगों ने मतदान किया था। यदि इनमें से 10 फीसदी मतदाता भी प्रबुद्ध और जागरूक होंगे तो वोटों के अनुपात में कड़ी प्रतिस्पर्धा की स्थिति को देखते हुए उनका योगदान महत्वपूर्ण होगा। इसका सीधा-सीधा मतलब यह है कि चुनाव में जीत का आधार किसी पार्टी द्वारा किया गया प्रदर्शन ही होगा। यह स्थिति पहले ही कुछ राज्यों में देखी जा चुकी है। बिहार चुनाव के नतीजे रोमांचक थे। उम्मीद की जानी चाहिए कि राजनेता और मतदाता इनसे जल्द ही सबक लेंगे।

Sunday, November 7, 2010

अत्यधिक ओबामा

अमेरिका में ओबामा कम हो रहे हैं। भारत में ओबामा अत्यधिक हुए जा रहे हैं। पांच दिनों से ओबामा के बारे में हर आतंरिक जानकारी दी जा रही है। ओबामा और भारत के तथाकथित रिश्ते को लेकर लाखों पन्ने विश्लेषण के छप चुके हैं। सैंकड़ों घंटे न्यूज़ चैनलों की चर्चाओं में विश्लेषण के ढेर उत्पादित हो चुके हैं। दिल्ली में मौजूद सभी विशेषज्ञों ने यथासंभव समीक्षा कर दी है। सोच रहा हूं कि अगर इतना ही विश्लेषण भारतीय विदेश सेवाओं के अफसरों को करना पड़ गया होगा तो उनकी तो गत निकल गई होगी। अंडरवीयर की साइज़ छोड़ हर आतंरिक जानकारी जनरल नॉलेज की किताब की मानिंद छप चुकी है। दिखाई जा चुकी है। कुछ विवादित खबरें भी छपी हैं। ओबामा की यात्रा पर ९०० करोड़ रुपये प्रतिदिन खर्च होंगे। सीएनएन के एंडरसन कूपर ने दो सौ मिलियन ड़ॉलर के मिथ पर कार्यक्रम कर पोल खोल दी है। भारतीय मीडिया की इस जानकारी की खिल्ली उड़ाते हुए कूपर के शो में आए मेहमानों ने काफी मज़ेदार टिप्पणियां की हैं।

एक अध्य्यन किया जाना चाहिए। ओबामा के आने से कितने टन पेपर छपे और कितने घंटे की फुटेज बनी। दस साल बाद कोई दिवाली के बाद के तीन दिनों में हिन्दुस्तान की घटनाओं को खंगालेगा तो उसे ओबामा के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। हालांकि आज कुछ स्थानीय चैनलों में हत्या वगैरह की खबरें दिखाईं जा रही थीं। आज के दिन भारत में एक ही घटना घट रही है। ओबामा अवतरित हो रहे हैं। मैं भी एक तटस्थ ब्लॉगर के रूप में इसे दर्ज कर रहा हूं। मीडिया का हर मंच अपने पाठक और दर्शकों को जागरूक तो करेगा ही। उन्हें जानकारी तो देगा ही। कौन रोक सकता है। इसे रोकना असंभव है। इसलिए इस प्रक्रिया पर अपनी टिप्पणी दर्ज कर रहा हूं। यह लेख विरोध टाइप फ्रेमवर्क में नहीं है। मैं खुद कई दिनों से ओबामा साहित्य पढ़ रहा हूं। लोकसभा टीवी पर एक अच्छी चर्चा भी सुनी। लगा कि काफी है। फिर अखबार निकाला तो ओबामा भार से दब गया। आज टीवी पर ओबामा ऐसे आ रहे हैं जैसे फरहान अख्तर की फिल्म में कोई डॉन आ रहा हो। ओबामा के जहाज़ को लेकर ग़ज़ब का रोमांच है। एयरफोर्स वन को काफी प्रमुखता मिली है। इतने वाक्य कहे और लिखे जा चुके हैं कि पार्थसारथी का कहा हुआ सी उदय भास्कर का लगता है और भास्कर का लिखा हुआ ब्रह्मा चेलानी का लगता है। बारीक विश्लेषण बालू की तरह दिमागी छलनी से ससर कर निकल जा रहा है।

एक और बात सामने आई है। दिल्ली अब विशेषज्ञों की सबसे बड़ी मंडी है। कोलकाता,मुंबई और चेन्नई में एक भी आदमी नहीं है(होगा भी तो आमंत्रित नही है) जो टीवी पर आकर अपना नज़रिया रखने लायक समझा गया हो। सारे के सारे दक्षिण दिल्ली के आसपास या कुछ पड़पड़गंज टाइप के इलाकों से उदित हो रहे हैं और स्टुडियो में मुखरित हो रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति को मालूम होगा कि उनका दौरा किसी जगह पर कितनी दुकानें खुलवाता है। जितने दिनों का दौरा उतने दिनों की दुकानें। विशेषज्ञ न होते तो भगवान जाने भारत अमेरिका की दोस्ती का क्या हाल हुआ होता। पता ही नहीं चलता कि कहां समस्या है और कहां समाधान। दिल्ली भारत के राष्ट्रीय विशेषज्ञों की राजधानी बन चुकी है।

भारत जनरल नॉलेज की सालाना किताब का ख्वाब पाल रहा है। सुपरपावर होने का ख्वाब। ये ख्वाब कब और कहां से हमारे नेशनल डिस्कोर्स में आ गया मुझे ज्ञात नहीं है। अज्ञात सूत्रों के मुताबिक भारत के संविधान में भी नहीं लिखा है कि हम भारत के लोग एक दिन मिलकर भारत को सुपरपावर बना देंगे। कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि जैसे किसी कार्यकर्ता के घर राहुल गांधी खाने चले गए हों और उनके जाने के बाद वो प्रदेश कांग्रेस के दफ्तर में चौड़ा होकर घूम रहा हो कि देखो हमारे रिश्ते बेहतर हो रहे हैं। राहुल जी सुपरपावर हैं तो हम उनके साथ खाकर एडिशनल सुपरपावर तो हो ही गए हैं। उसका दिल तब टूटता है जब सुपरपावर राहुल जी किसी और राज्य के कार्यकर्ता के घर जाकर खा लेते हैं। वैसे इसी बहाने आम दर्शक और पाठक भारत और अमेरिका के हर पहलु का ज्ञाता बन जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए।

ओबामा के दो साल गुजर गए। कर्णप्रिय कथनों के उच्चरण का असर कम हो रहा है। गांधी को अपना आदर्श मानते हैं मगर यह भी कहते हैं कि गांधी जैसे होना मुश्किल है। कैसे होगा। गांधी खादी में थे और आप सूट में हैं। गांधी होते तो एक साधारण विमान से अमेरिका चले जाते और आप भारत आने के लिए विमानों की प्रदर्शनी कराने लगे हैं। गांधी का नाम लेना ओबामा की चालाकी है। अंबेडकर को भी याद कर लेते। जिस लड़ाई के ओबामा प्रतीक हैं उसमें अंबेडकर एक अच्छी मिसाल हो सकते थे। ऐसा करना उनके लिए अच्छा भी होता। मगर गांधी का नाम और उनकी तस्वीर लगाकर ओबामा ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे लगे कि उनकी विचारधारा का एक चेला दुनिया की सबसे ऊंची कुर्सी पर पहुंच गया है। वो उनके जैसा ही कुछ करना चाहता है। ओबामा ने यस वी 'कैन' तो कह दिया लेकिन क्या 'कैन' किया है किसी को मालूम नहीं है। गांधी का नाम लेकर यह आदमी बाज़ार खोज रहा है। किसी को शर्म नहीं आई कि ग्लोबल गांधी को ग्लोबलाइज़ेशन का उपकरण बना दिया। बंदूक और बम का बाज़ार। भारत में। नौकरियां अब राष्ट्रवाद को परिभाषित कर रही हैं। मुल्कों के प्रधान नौकरियों के लिए बिजनेस खोज रहे हैं। पहले राष्ट्र का विस्तार उसकी भौगोलिक सीमाओं से होता था अब नौकरियों की संभावनाओं से हो रहा है।

Friday, November 5, 2010

भारत और अमेरिका सफरनामा : आइजनहॉवर से ओबामा तक

आज अमेरिका हमारी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में बड़ी हिस्सेदारी चाहता है। भारत की अहमियत को बताना और भारत को उभरते हुए सुपर पावर का महत्व देना भी इस यात्रा का उद्देश्य है। आम लोगों में ओबामा की अच्छी छवि बनी तो ही सौदे उनकी झोली में गिरेंगे। पाकिस्तान के यहां जाकर तो ओबामा को सद्भावना नहीं मिलती। प्रस्तुत है आइजनहॉवर से ओबामा तक के इस समयकालकंड में बहुत कुछ बदला है, प्रस्तुत है भारत और अमेरिका उतार-चढ़ाव भरे सफरनामे पर एक सिंहावलोकन:



9-14 दिसंबर 1959 : ड्वाइट आइजनहॉवर

रामलीला मैदान में दिया भाषण

यहां आने वाले अमेरिका के पहले राष्ट्रपति। उन्होंने तब के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात के अलावा संसद में भाषण दिया, राजकीय भोज में शामिल हुए, दिल्ली यूनिवर्सिटी में डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण की, आगरा जाकर ताजमहल देखा और पास के गांव लारामदा जाकर लोगों से मिले। सुरक्षा बेफिक्री के उन दिनों में आइजनहॉवर ने रामलीला मैदान में भाषण भी दिया। वहां ढाई लाख से ज्यादा लोग मौजूद थे। लोगों ने ‘आइजनहॉवर जिंदाबाद’ के नारे भी लगाए।

31 जुलाई - 1 अगस्त 1969 : रिचर्ड निक्सन

सबसे छोटी यात्रा

दस साल पहले लोगों ने आइजनहॉवर के स्वागत में जो उत्साह दिखाया था वह गायब था। निक्सन व तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एक-दूसरे को पसंद नहीं करते थे। हाल ही में उजागर हुए अमेरिकी दस्तावेजों से भी यही खुलासा हुआ है। तेईस घंटे की इस यात्रा में निक्सन ने कार्यवाहक राष्ट्रपति मोहम्मद हिदायतुल्ला और इंदिरा गांधी से चर्चा की। राष्ट्रपति द्वारा दिए भोज में शामिल हुए और आधा घंटे का सांस्कृतिक कार्यक्रम देखकर अगली सुबह लाहौर रवाना हो गए। यात्रा इतनी छोटी थी कि किसी खास मुद्दे पर बातचीत नहीं हो पाई।



1-3 जनवरी 1978 : जिमी कार्टर

नसीराबाद बना कार्टरपुरी

अपनी खास किस्म की मुस्कान से जिमी कार्टर ने लोगों का मन मोह लिया। वे गुड़गांव के पास नसीराबाद-दौलतपुर गांव गए। उनकी मां लिलीयन गॉर्डी कार्टर 1960 के दशक में अमेरिकी पीस कोर के साथ आई थीं और यहां उन्होंने नर्स के रूप में काम किया था। कार्टर अपनी पत्नी रोजलीन के साथ एक घंटा गांव में रहे। रोजलीन स्थानीय कपड़े पहने थीं। उन्होंने उपहार में गांव को उसका पहला टीवी दिया। उस घर में गए जहां उनकी मां रही थीं। वहां कार्टर दंपती ने रोटी का स्वाद लिया। कार्टर की यात्रा से उत्साहित लोगों ने गांव का नाम कार्टरपुरी कर दिया। कार्टर ने दिल्ली में राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से मुलाकात की और संसद को संबोधित किया।

19-25 मार्च 2000 : बिल क्लिंटन

नायला में देखा पंचायती राज

बिल क्लिंटन जब बांग्लादेश में ही थे तब ही उनकी बेटी चेल्सी व सास डोरोथी भारत आ गईं। जोधपुर में उन्होंने उम्मेदभवन पैलेस में होली का लुत्फ उठाया। क्लिंटन भारत-अमेरिका रिश्तों में उत्साह भरने में कामयाब रहे। अपनी यात्रा में वे राष्ट्रपति केआर नारायणन और प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा दिए भोज में शरीक हुए, आगरा में ताजमहल देखा। जयपुर के पास नायला गांव में जाकर पंचायती राज का अनुभव लिया। महिलाओं द्वारा चलाए जा रही सहकारी दुग्ध सोसायटी का कामकाज देखा।

1-3 मार्च 2006 : जॉर्ज बुश

वाकई ऐतिहासिक यात्रा

अमेरिकी राष्ट्रपतियों में बुश की यात्रा को वास्तव में ऐतिहासिक कहा जा सकता है। परमाणु करार तथा रक्षा, अंतरिक्ष और ऊंची टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में सहयोग के जरिए उन्होंने संकेत दिया कि वे वाकई हमारे साथ रणनीतिक भागीदारी में रुचि रखते हैं। वे हैदराबाद भी गए। फिर दिल्ली लौटकर बुद्धिजीवियों से मुखातिब हुए। पाकिस्तान रवाना होने से पूर्व उन्होंने हमें अमेरिका का स्वाभाविक सहयोगी बताते हुए यहां के जीवंत लोकतंत्र व विविधतापूर्ण समाज की खुले दिल से तारीफ की।

6-9 नवंबर 2010: बराक ओबामा

वक्त ही बताएगा

कुछ दिनों पहले भारत आने की अपनी उत्सुकता बताते हुए बराक ओबामा ने एक यूरोपीय विद्वान के बयान को दोहराया। उन्होंने कहा, आप मानव गतिविधि के किसी भी क्षेत्र का अध्ययन करना चाहे, फिर यह भाषा हो या धर्म, पुराण हो या दर्शन, प्रागैतिहासिक कला हो या विज्ञान आपको भारत जाना ही होगा। क्योंकि मानव इतिहास का बेशकीमती खजाना भारत और सिर्फ भारत में संजोकर रखा हुआ है। फिर उन्होंने कहा, ‘इसलिए जब हम अपने लोगों के लिए समृद्ध भविष्य की बात कर रहे हैं तो मुझे भारत जाना ही होगा, इसमें कोई संदेह नहीं।’


उतार-चढ़ाव भरा सफर


पहले दिए बहुत जख्म

* अपनी अफगानिस्तान-पाक नीति की सफलता को कश्मीर समस्या के जल्द समाधान से जोड़ा।

* दक्षिण एशिया में शांति-स्थिरता के लिए चीन के साथ मिलकर काम करने की बात कही।

* इतना ही नहीं कश्मीर समस्या सुलझाने के लिए चीन को भारत-पाक में मध्यस्थता करने की सलाह तक दे डाली।

फिर लगाया मरहम

* हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपने कार्यकाल के पहले मेहमान के रूप में आमंत्रित किया।

* वाशिंगटन में हमारे विदेशमंत्री एसएम कृष्णा से विदेश मंत्रालय में खुद आकर मिले, भारत की तारीफ की।

* फिर अचानक इतनी जल्दी भारत आने पर सहमत हुए। दौरे में पाकिस्तान को शामिल नहीं किया।

* हमारे प्रधानमंत्री से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर छह बार मिले। हर बार मजबूत रिश्तों का भरोसा दिलाया।

* यूरेनियम के फिर इस्तेमाल संबंधी समझौते को अंतिम रूप देकर परमाणु समझौते पर संदेह को दूर किया।

पर चिंताएं तो अब भी बाकी

* पाकिस्तान को बड़ी मात्रा में हथियारों और सैन्य साजोसामान की सप्लाई।

* अफगानिस्तान में तालिबान से समझौते की अमेरिकी नीति।

* चीन द्वारा एनएसजी के नियम तोड़कर पाकिस्तान को दो अतिरिक्त परमाणु संयंत्र देने पर चुप्पी।

* पाकिस्तान जैसे नाकाम, आतंकवादी देश के साथ भारत को रखने की प्रवृत्ति।

Thursday, November 4, 2010

What India Can Expect From Obama

What India expects:
* Support on India’s candidature for a permanent seat in the UN Security Council
* Inclusion in the Nuclear Suppliers Group (removal of DRDO and ISRO from the blacklist)
* Bigger role for India in Afghanistan, particularly with future regimes in Kabul
* Greater access to US markets for Indian goods and services
* Consideration for India’s strategic concerns in the region and beyond
What US expects:
* Indian support to restore peace and stability in Afghanistan
* Help to ensure no single country dominates Asian geopolitics
* Access to Indian market for US companies
* Permission for US firms to sell new seed technology in India
* A big share of the Indian civil nuclear market
But prior to his visit to India, Obama has been in the news for his not very positive take on issues that are close to India:
What Obama says:
On whether he can lift curbs on export of dual-use technology items to India, and support permanent membership for India at the UNSC: “Very difficult and complicated“.
On geo-strategy: “My vision is a US-India partnership in which we work together to shape a more secure, stable, and just world… My visit gives me an opportunity to experience first hand your fascinating country, discuss issues of mutual concern with my friend Prime Minister Singh, and work with him to bring our cooperation on a broad range of issues to a new level.”
On outsourcing: “It is my responsibility to support jobs and opportunity for the American people… I believe the US-India economic relationship can and should be a ‘win-win’ relationship for both of our countries.”

आ रहे हैं भगवान ओबामा

हर नागरिक अभिभूत है। भावनाओं का सागर हिलोरें ले रहा है। कोई सामान्य घटना तो है नहीं। सदियों बाद ऐसा होता है। सब जानते थे कि सिर्फ दस अवतारों से इस धरती का काम नहीं चलने वाला है। उनको आना ही होगा। भक्तों की पीड़ा सुनने वे नहीं आएंगे तो कौन आएगा। हम न जाने कब से अंधकार में पड़े हैं। रोशनी दिखाने वाला आएगा। अब ज्यादा दिन नहीं हैं। वे बस आना ही चाहते हैं।
सबको खबर कर दी गई है। क्या राजा, क्या प्रजा, सभी पलक पांवड़े बिछाए हुए हैं। कहीं कोई कमी न रह जाए स्वागत में। तय कर दिया गया है कि मिनिस्टर-इन-वेटिंग कौन होगा। क्या पद है। वह बिछे जा रहे हैं कि हर किसी के जीवन में ऐसा अवसर नहीं आता। अब और जीवन से क्या चाहिए। इधर, तैयारी पूरी है। वे कहां विराजमान होंगे, किन-किन रास्तों से होकर कहां-कहां जाएंगे, उनकी मर्जी से तय किया जा रहा है। रास्ते बुहारे जा रहे हैं। मैनहोल तक खंगाले जा रहे हैं। अब क्या है कि भगवान तो हैं वे लेकिन यह 21वीं सदी है। इसलिए व्यवस्था करनी पड़ती है। सब जय-जयकार कर रहे हैं। आने तक का इंतजार कौन करे। मैडम राव पहले ही जाकर दूत का फर्ज निभा आई हैं।
भगवान ओबामा आ रहे हैं।
हमारे राजा और उनके मंत्रीगण प्रसन्न हैं। उन्हें लग रहा है कि भक्ति का मान रखा प्रभु ने। वे अपने विशेष विमान से आएंगे। सीधे मुंबई जाएंगे। हमारी दुखती रग को सहलाएंगे। हमें पूरा यकीन है कि वे कहेंगे कि आतंक से इस लड़ाई में वे हमारे साथ हैं। हों भी क्यों न, उनका घाव भी अभी हरा ही है। कलिकाल के भगवान जो ठहरे। दिक्कत यह पैदा हो गई है कि देवलोक अमेरिका में बहुत सारे देवता उनके खिलाफ हो गए हैं। क्या आप जानते नहीं है कि आज के देवलोक में भी लोकतंत्र का बोलबाला है। लिहाजा, चुनाव में हार की गर्म हवा उन्हें सता रही है। वह कुछ ठंडक पाने ही तो यहां आ रहे हैं। आएंगे तो उनकी रेटिंग बढ़ जाएंगी। याद कीजिए, क्लिंटन की भी ऐसे ही बढ़ी थी। अप्सरा मोनिका के साथ रंगरेलियां मनाने के बाद भी उनका भाव चढ़ गया था।
हमारे राजा व उनके दरबारी सोचने में लगे हैं कि भगवान आएंगे तो इतना तो जरूर कहेंगे कि वत्स, मांगो क्या वर मांगते हो। हम तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हैं। तुमने हमारे साथ परमाणु करार किया है। तुम्हारी तपस्या का फल तो जरूर मिलेगा। लेकिन ऐसा वर मांगना जिस पर मैं तथास्तु कह सकूं। वे जरूर कहेंगे, प्रौद्योगिकी निर्यात की बात मत मांगना। सबकुछ कैसे दे सकता हूं। मुझे भी तो जवाब देना है। यह दीगर बात है कि तुम मुझे भगवान मान रहे हो। हां, एक बात और संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्यता का वर भी मत मांगना। अब तुम जानते ही हो कि मैं कितना भी प्रसन्न हूं लेकिन अपना सिंहासन थोड़े ही दे दूंगा। तुम्हें बगल में बैठाने से पहले मुझे कई बार सोचना पड़ेगा। लिहाजा ये जटिल व पेचीदा वरदान मैं नहीं दे पाऊंगा। कहना ही मत। इस मामले में तुम्हारी इतनी बात मान सकता हूं कि तुम्हारे सामने कश्मीर की बात मैं नहीं करूंगा। पाकिस्तान को मैं समझा रहा हूं। थोड़ा शरारती है। मान जाएगा। आज नहीं तो कल मान जाएगा। अभी मुझे उससे काम है इसलिए ज्यादा जोर नहीं डाल सकता। तालिबान, अलकायदा से लड़ाई में उसकी जरूरत है। मैं भगवान हूं तो क्या हुआ, हूं तो आज का। सबके संहार की क्षमता मुझमें नहीं है। यह दीगर बात है कि दुनिया में कई देशों में मैंने नाहक ही अपने दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर दिया है। और सुनो, अपने देवलोक में मैंने कितने नर-नारियों को (भारतीयों) को अपने दरबार (कांग्रेस) में जगह दी है। वे चाहे मेरी पार्टी में हों या विरोधियों की। निक्की को गवनर्र बन जाने दिया। यह क्या कम है।
खैर, हम तो उनके स्वागत की तैयारियों में जुटे हैं। होटल का चप्पा-चप्पा छान मारा है हमने। गुलाब की पंखुड़ी भी कोई उनकी तरफ नहीं उछाल पाएगा। मुंबई में आकाशमार्ग से उतरेंगे। वहां वे बच्चों के साथ दीवाली मनाएंगे। कुछ खास जगहों पर जाएंगे। रास्ते को हम अपनी पलकों से बुहार रहे हैं। सड़कों में हमने अपनी आंखें धंसा दी हैं। खाने के लिए क्या-क्या नहीं जुटाया है। उन्होंने एक बार हल्के-से कह दिया था कि प्लैटर पसंद है। अब हिलेरी के प्लैटर से कम हुआ तो हमारी खैर नहीं। हमारे शेफ जुटे हैं। अभी से प्याज छीलने में लग गए हैं।
मुंबई के बाद भगवान दिल्ली आएंगे। राजघाट पर लंगोटी वाले बाबा की समाधि पर अपना शीश झुकाएंगे। बस यही बात समझ से बाहर है। सब लोग उनकी समाधि पर क्या करने जाते हैं। रस्म बड़ी चीज है निभाते रहिए, इस फॉर्मूले का चक्कर है तो ठीक है क्योंकि देवलोक के लोग गांधी की अहिंसा को तो अपने रथ के पिछवाड़े डालकर घूमते हैं। वियतनाम से लेकर अफगानिस्तान तक, कंबोडिया से लेकर इराक तक अहिंसा के झंडे का झ भी नहीं बचा है। हां, हर लड़ाई को वे देवासुर संग्राम का नाम जरूर देते हैं वर्ना अमृत के असुरों के हाथों पड़ जाने का खतरा है।
अंत में कुछ अर्ज करना चाहूंगा। जॉर्ज पंचम की शान में तो गीत रचा गया था और उसे हम आज भी अपने माथे से लगाए बैठे हैं। अब देखना यह है कि ओबामा के लिए क्या-क्या समर्पित किया जाएगा। तो आइए, सब मिल कर कहें- भगवान ओबामा की जय। ना…ना… इंकार मत कीजिए। देशद्रोह का मुकदमा चल सकता है।

Tuesday, October 12, 2010

जीवन में सही-गलत को पहचानना बड़ी चुनौती

जीवन में दो बड़े खतरे हैं : ज्ञान का खतरा अहंकार और भक्ति का खतरा आलस्य। आज के विकास के युग में आलस्य अपराध है। घोर परिश्रम के दौर में आलस्य दुगरुण बनकर हमारी परिश्रमी वृत्ति पर प्रहार करता है। भक्त होना एक योग्यता है। भक्ति को केवल क्रिया न मानें, यह जीवन शैली है।

फकीरों ने भक्ति को बीज बताते हुए कहा है, ऐसा बीज कभी भी निष्फल नहीं जाता। युग बीत जाने पर भी इसके परिणाम में फर्क नहीं आएगा। भक्ति बीज पलटे नहीं, जो जुग जाय अनंत। कबीर एक जगह कह गए हैं कि इस सीढ़ी पर लगन और परिश्रम से चढ़ना पड़ता है।

जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछिताय। साधना के मार्ग में आलस्य कभी-कभी सीधे प्रवेश नहीं करता, वह रूप बनाकर भी आता है। भक्ति के मार्ग पर चलते हुए कई भक्तों को यह भी लगता है कि हम जिस राह पर हैं, वह सही भी है या नहीं?

जीवन में सही-गलत को पहचानना भी बड़ी चुनौती है। आस्तिकता का एक रास्ता है और नास्तिकता के दस। भरोसे की एक किरण हाथ लगती है तो संदेह का बड़ा अंधकार आ घेरता है। इसीलिए लोग नास्तिक हो जाते हैं। महात्माओं, फकीरों ने इस झंझट से बचने का एक सरल तरीका बताया है, वह है भरोसा।

इस निर्णय से हम कहीं पहुंच भी जाएंगे, वरना जीवन भर भटकते रहेंगे। करने वाले हम होते हैं, कराने वाला दूसरा। यहीं से आज के कर्म-युग में शांति प्राप्त हो जाएगी। अत: एक बार भक्ति को भरोसे से जोड़ दें।

Wednesday, October 6, 2010

फिर होगी राम की अग्निपरीक्षा

अब चूंकि फैसला हो गया है, जो हमारे भारत की भावात्मक-रागात्मक एकता, सांस्कृतिक परंपरा और आस्था के अनुकूल है, इसलिए इस बात पर कुछ क्षण के लिए विचार किया जा सकता है कि यदि यह फैसला इसके विपरीत होता तो क्या होता? 

अयोध्या के ऐतिहासिक फैसले के बाद कुछ महानुभावों ने अपनी प्रतिक्रिया में इस बात पर खुशी जाहिर की कि ‘अब तो अदालत से भी सिद्ध हो गया कि भगवान राम थे और वे हमारे आराध्य हैं।’ ऐसी ही खुशी का भाव कई अन्य के चेहरों पर था कि अदालत ने भगवान राम के जन्म होने के स्थान पर मुहर लगा दी है यानी परोक्ष रूप से मान लिया है कि भगवान राम थे। कुछ लोग तो इस सीमा तक विश्लेषण करने लगे कि भगवान राम, भगवान के रूप में न सही पर हमारे पूर्वज के रूप में तो सभी को स्वीकार्य होने चाहिए। 

ऐसे ही और भी कई तर्क इस अदालत के फैसले के बरक्स किए जा सकते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने फैसला सुनाकर अपनी तरफ से एक लंबे और बहुप्रतीक्षित विवाद का सर्वमान्य हल देने का प्रयास किया है, लेकिन खेद का विषय है कि हम अपने तर्को के सहारे उसी फैसले के मद्देनजर नए विवादों को जन्म देने की कोशिश में लगे हैं।
यह अस्वाभाविक या असंभव भी नहीं है। जब भी आस्था को तर्को-वितर्को की कसौटी पर कसा जाएगा, गवाहों, सबूतों और अभिलेखों के आधार पर सिद्ध किया जाएगा, ऐसे विवाद उठने स्वाभाविक हैं। ऐसे ही विवाद हमारी समझदारी और सहिष्णुता की परीक्षा लेते हैं। परीक्षा धर्य और संयम की भी होती है। यही विवाद कालान्तर में उन्माद को जन्म देते हैं, जिसकी विभीषिका हमने सन १९९२ में देखी है। 

प्रश्न यह है कि हम आस्था को अदालत की कसौटी पर कसने का प्रयास क्यों करते हैं? ईश्वर का अस्तित्व आस्था का प्रश्न है, तर्क और सबूतों का नहीं। हम में से कई लोग ऐसे भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते। कुछ ऐसे भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते पर किसी वैश्विक ऊर्जा या शक्ति को मानते हैं, जो इस पूरे ब्रrांड के प्रपंच को संचालित कर रही है। ईश्वर का होना एक विश्वास है, तो ईश्वर का न होना भी एक विश्वास है। हिंदू धर्मावलंबियों में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का संदर्भ आता है। हरेक को अपनी आस्था के अनुरूप ईश्वर के स्वरूप को चुनने की स्वतंत्रता है। 

इसके अलावा धर्म में ऋषि, मनीषियों, संतों, महात्माओं की एक विशाल परंपरा है, जिन्हें देवतुल्य मानकर उनकी उपासना की जाती है। इसके अलावा कई और प्रतीक भी हैं, जिन्हें देवतुल्य आदर प्राप्त है और उन्हें भी उसी तरह पूजा जाता है, आराधना की जाती है। 

इन प्रतीकों में नदियां हैं, पर्वत हैं, पेड़ हैं और भी न जाने क्या-क्या है। लेकिन सभी अपनी-अपनी तरह से आस्था के स्थान हैं और श्रद्धालुओं के विश्वास के कारण दैवीय आभा से परिपूर्ण हैं। प्रश्न यह है कि क्या इन सभी के अस्तित्व को कसौटी पर कसने के लिए हमें हर बार अदालत का सहारा लेना पड़ेगा और क्या हर बार हम अदालत के फैसले के बाद ही अपनी आस्थाओं की पुष्टि कर पाएंगे। आस्था के अदालतों द्वारा प्रमाणीकरण का सिलसिला क्या यूं ही चलता रहेगा?

अब चूंकि फैसला हो गया है, जो हमारे भारत की भावात्मक-रागात्मक एकता, सांस्कृतिक परंपरा और आस्था के अनुकूल है, इसलिए इस बात पर कुछ क्षण के लिए विचार किया जा सकता है कि यदि यह फैसला इसके विपरीत होता तो क्या होता? यदि माननीय उच्च न्यायालय भगवान श्रीराम के जन्मस्थान के बारे में या उनके अस्तित्व के बारे में विपरीत फैसला देता या मौन रह जाता, तब हम हमारी आस्था के लिए कैसी प्रतिक्रिया देते, यह सोचने का विषय है। 

क्या हम तब भगवान श्रीराम को मानना छोड़ देते या उन्हें अपना पूर्वज मानने से इनकार कर देते? क्या हम उन तर्को के सामने अपनी आस्था के प्रश्न को गौण मानकर छोड़ देते? क्या तब हमारी भगवान श्रीराम के प्रति आस्था में, उनके प्रति भक्ति भाव में कमी आती और तब क्या हम उनकी उपासना करना छोड़ देते? नहीं, हम ऐसा हरगिज नहीं कर पाते। तब फिर हम आस्था के विषय को अदालत की कसौटी पर ले जाकर माननीय अदालत के सामने भी एक बड़ा प्रश्नचिह्न् क्यों छोड़ देते हैं? कई सौ वर्षो की गुलामी के काल में भी भारत पर शासन करने वालों ने भारतीयों की आस्था के विषय पर कभी कोई प्रश्नचिह्न् नहीं लगाया। 

वे भारतीयों पर शासन करते रहे लेकिन भारतीयों की आस्था के साथ ही जीते रहे। खेद का विषय है कि आज हम आजाद भारत में अपने ही बनाए कानून के तहत आस्था पर सवाल उठा रहे हैं और अदालतों के माध्यम से उसे सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं। आज जो लोग माननीय उच्च न्यायालय द्वारा भगवान श्रीराम का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर हर्ष व्यक्त कर रहे हैं, क्या उन्होंने कभी इस बात की पड़ताल की है कि इसके विपरीत फैसला आने पर उनकी प्रतिक्रिया क्या होती। हमारे जीवन में कुछ तो ऐसा होना चाहिए, जो तर्को-वितर्को से परे हो और जिसे गवाहों, सबूतों, दस्तावेजों के आधार पर नहीं, अपने भाव से तौला जा सके।

अब फिर कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात कह रहे हैं। फिर तर्क-वितर्क होंगे। गवाह पेश होंगे, सबूत दिए जाएंगे, अभिलेख दिखाए जाएंगे। फिर से जमीन के हक की और उसके बंटवारे की बात होगी। यानी एक बार फिर प्रश्न उठेगा कि भगवान राम वहां जन्मे थे या नहीं, साथ ही यह भी कि भगवान राम थे भी या नहीं। 

यानी एक बार फिर राम की अग्नि परीक्षा होगी। सीता मैया की अग्नि परीक्षा लेकर तुमने यह क्या अनर्थ कर दिया प्रभु कि इस कलियुग में तुम्हें बार-बार अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ रहा है

क्या बिहार के 43 प्रतिशत लोग अपराधी हैं

 बिहार में विधानसभा चुनाव जोरो पर हैं। सभी दल विकास के नाम पर वोट मांगने की बात कर रहे हैं। नीतीश कुमार तो अपने मुख्यमंत्रीकाल के दौरान किए गए विकास कार्यों का गुणगान करने में लगे हैं। लेकिन अब तक बिहार चुनाव की जो तस्वीर सामने आई है वो सवाल खड़ा कर रही है कि क्या बिहार के 43 प्रतिशत लोग अपराधी हैं? हम ये इसलिए पूछ रहे हैं क्योंकि बिहार के लोगों का प्रतिनिधित्व करने के लिए जो लोग सामने आए हैं उनमें से ज्यादातर अपराधी हैं। बाकी आप हेमंत अत्री की यह रिपोर्ट पढ़कर समझ जाएंगे...

मात्र 24 घंटे पहले चुनाव आयोग की सर्वदलीय बैठक में राजनीति का अपराधीकरण रोकने की खुली वकालत करने वाले सियासी दलों की इस मामले में गंभीरता का अंदाजा बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अब तक जारी प्रत्याशियों की सूचियों के विश्लेषण से लग जाता है। अब तक चुनाव के लिए पांच प्रमुख दलों ने कुल 526 प्रत्याशी घोषित किए हैं जिनमें से 268 के पुराने रिकॉर्ड मौजूद हैं। 

इनमें से 116 प्रत्याशियों (43.28 फीसदी) के खिलाफ आम मामलों से लेकर हत्या, अवैध हिरासत, फिरौती व लूटपाट जैसे गंभीर मामले लंबित हैं। हैरानी की बात यह है कि दागी छवि के लोगों को टिकट देने में खुद को पार्टी विद ए डिफरेंस कहने वाली भाजपा सबसे आगे है। पार्टी द्वारा अब तक घोषित 87 प्रत्याशियों मंे 66 के पुराने शपथपत्र उपलब्ध हैं और इनमें से 41 (62.12 फीसदी) के खिलाफ आपराधिक मामले जारी हैं। दूसरा स्थान रामविलास पासवान की अगुआई वाली लोजपा का है जिसके 67 में से 28 प्रत्याशियों का रिकॉर्ड मौजूद हैं और उनमें 13 (46.43 फीसदी) दागी छवि के हैं। 

लालू यादव की राजद के 118 में 57 प्रत्याशियों का रिकॉर्ड उपलब्ध है जिनमें से 22 (38.60 फीसदी) के खिलाफ ऐसे मामले बकाया हैं। सत्तारूढ़ जनता दल यूनाईटेड भी इसमें पीछे नहीं है और उसके 132 में से 86 प्रत्याशियों का रिकॉर्ड उपलब्ध है। इनमें से 31 (36.05 फीसदी) का दागी इतिहास रहा है। नेशनल इलेक्शन वॉच नामक स्वंयसेवी संस्था द्वारा जुटाए गए आंकड़ों में सोनिया गांधी की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी दागी छवि के प्रत्याशी उतारने में पीछे नहीं है। 

कांग्रेस ने अब तक राज्य में 122 टिकट घोषित किए हैं और इनमें से 31 प्रत्याशियों का पुराना रिकार्ड उपलब्ध है। इनमें से नौ प्रत्याशी (29.03 फीसदी) दागी छवि के हैं। यह आंकड़ा सभी प्रत्याशियों के नामांकनों के दौरान भरे जाने वाले शपथपत्रों के बाद एकाएक बढ़ जाने की पूरी आशंका है। यह हालात तब है जब मात्र एक दिन पहले देश के सभी राष्ट्रीय व प्रादेशिक सियासी दलों के अगुआ केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में इस तरह के प्रत्याशियों को मैदान में न उतारे जाने की वकालत खुलकर कर चुके हैं। 

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति बिहार में प्रत्याशियों की आपराधिक पृष्ठभूमि को लेकर खासे चिंतित हैं। उनका कहना है कि लोकतंत्र में लोगों की इच्छा प्रदर्शित होनी चाहिए। बाहुबल और धनबल लोगों की इच्छा के प्रतीक नहीं हो सकते। ऐसे लोगों को उनका प्रतिनिधि नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र की पवित्रता उसके जनप्रतिनिधियों की पवित्रता में ही निहित है और सभी दलों को प्रत्याशी उतारते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए

Friday, October 1, 2010

अयोध्या

अयोध्या की ज़मीन का टुकड़ा जितना छोटा है, उतना ही बड़ा है इस ज़मीन से जुड़ा विवाद. यह विवाद आस्था को अदालती मान्यता दिलाने के मुकदमे से शुरू हुआ और धीरे-धीरे बदल गया ऐतिहासिक कानूनी जंग में कि अयोध्या के रामकोट गांव के प्लॉट नंबर 159/160 का मालिक कौन है?
अयोध्या की विवादित ज़मीन के बारे में ज़्यादातर लोग यही समझते हैं कि यह मुकदमा निर्मोही अखाड़े और सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड के बीच है. लेकिन असल में विवादित ज़मीन पर मुकदमेबाज़ी की नींव अयोध्या के एक ऐसे शख्स ने रखी, जो ज़मीन पर ना तो मालिकाना हक़ चाहता था और ना ही किसी को बेदखल करना.
22-23 दिसंबर 1949 की रात अयोध्या में विवादित परिसर में मूर्तियां रख दिए जाने का मामला गर्म था. प्रशासन ने विवादित परिसर पर ताला तो जड़ दिया, लेकिन मूर्तियों को जस का तस रहने दिया. विवादित परिसर पर 5 जनवरी 1950 को अयोध्या नगर पालिका के चेयरमैन प्रियदत्त राम को रिसीवर नियुक्त कर दिया गया.
16 जनवरी 1950, अयोध्या के विवादित परिसर पर ताला लटका था जहां ना आरती हो सकती थी, ना अज़ान. ऐसे में अयोध्या के निवासी गोपाल सिंह विशारद ने सिविल जज एन एन चड्ढा की अदालत में अर्ज़ी देकर कहा कि यहां राम चबूतरा और सीता रसोई में वह 1934 से ही पूजा-पाठ करते रहे हैं, लिहाज़ा उन्हें पूजा-अर्चना और भगवान को भोग चढ़ाने की अनुमति दी जाए. सिविल जज ने उन्हें विवादित परिसर में पूजा करने और भगवान को भोग लगाने की सशर्त अनुमति दे दी.
कुछ स्थानीय मुसलमानों ने सिविल जज के आदेश के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की, लेकिन 26 अप्रैल 1955 को हाईकोर्ट ने सिविल जज के अंतरिम आदेश की पुष्टि करते हुए याचिका खारिज कर दी.
गोपाल सिंह विशारद की याचिका पर सिविल जज ने जो आदेश दिया, उसके बाद अयोध्या में करीब 9 साल तक कोई बड़ी उथल-पुथल नहीं मची.
अयोध्या, 1959
निर्मोही अखाड़े ने विवादित ज़मीन पर पहली बार खुलकर दावा ठोंका. निर्मोही अखाड़े ने अयोध्या की विवादित ज़मीन को अपने न्यास की संपत्ति बताते हुए सिविल जज की अदालत में याचिका दायर कर दी. 1959 के वाद संख्या 26 में निर्मोही अखाड़े ने विवादित परिसर के रिसीवर प्रियदत्त राम और यूपी सरकार को प्रतिवादी बनाया.
निर्मोही अखाड़े का दावा था कि विवादित ढांचे में निर्मोही अखाड़े ने ही मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा कराई. जहां अनादि काल से निर्मोही अखाड़े के साधु-संत पूजा करते रहे हैं. इस मंदिर का प्रबंध भी निर्मोही अखाड़ा ही देखता रहा है. लेकिन 29 दिसंबर 1949 से यहां रिसीवर बैठा दिया गया. निर्मोही अखाड़े ने अदालत से मांग की कि रिसीवर हटाकर विवादित परिसर का प्रबंध उसे दोबारा सौंपा जाए
दावे का आधार क्या है.
निर्मोही अखाड़े की याचिका पर अदालती सुनवाई आगे बढ़ने से पहले ही विवादित ज़मीन पर मालिकाना हक़ का एक और मुकदमा शुरू हो गया. सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड ने अयोध्या के मोहम्मद हाशिम समेत पांच लोगों के ज़रिए 18 दिसंबर 1961 को फैज़ाबाद के सिविल जज की अदालत में याचिका दायर की.
1961 के इस वाद संख्या 12 में गोपाल सिंह विशारद को प्रतिवादी बनाते हुए सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने दावा किया है कि विवादित परिसर को लोग बाबरी मस्जिद के नाम से जानते हैं. जहां ज़बर्दस्ती मूर्तियां रख दी गईं. लिहाज़ा यहां से मूर्तियां हटाई जाएं और बाबरी मस्जिद और उससे सटे कब्रिस्तान की ज़मीन वक्फ बोर्ड को सौंपी जाए.
गोपाल सिंह विशारद ने पूजा की इजाज़त मांगी थी, लेकिन निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड के मुकदमों के बाद फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में अयोध्या के विवादित परिसर का मसला मालिकाना हक़ के कानूनी दांवपेंच में उलझ गया. 1964 में सिविल जज की अदालत ने सभी मुकदमों में इश्यू तय कर दिया और सुनवाई शुरू हो गई.
अगले 22 साल तक विवादित ज़मीन को लेकर सिविल जज की अदालत में सुनवाई चलती रही. निर्मोही अखाड़ा इसे राम जन्मस्थान बताता रहा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड बाबरी मस्जिद. मालिकाना हक के इस झगड़े के बीच में था गोपाल सिंह विशारद की आस्था का मुकदमा.
ताला खोलने का आदेश कैसे मिला
विशारद की ही 1950 वाली याचिका को आधार बनाते हुए फैजाबाद के वकील उमेश चंद्र पांडेय ने 21 जनवरी 1986 को मुंसिफ सदर की अदालत में वाद दाखिल कर दिया.
उमेश चंद्र पांडेय की मांग थी कि अयोध्या के विवादित परिसर का ताला खोला जाए और वहां सबको पूजा और दर्शन करने की छूट दी जाए. फैजाबाद के मुंसिफ सदर की अदालत ने एक हफ्ते बाद फैसला सुनाया. उन्होंने कहा कि सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के 1961 के मुकदमे की फाइल की गैरमौजूदगी में ऐसा कोई आदेश नहीं दिया जा सकता.
अयोध्या, 1 फरवरी 1986
मुंसिफ सदर के फैसले के खिलाफ़ उमेश चंद्र पांडेय ने फैजाबाद के ज़िला जज की अदालत का दरवाज़ा खटखटाया. फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज़ के एम पांडेय ने विवादित परिसर का ताला खोलने का आदेश दिया.
ज़िला जज़ के इस आदेश के बाद विवादित ज़मीन के मुकदमों का नया दौर शुरू हुआ. ताला खोलने के फैसले के खिलाफ़ मोहम्मद हाशिम ने 8 फरवरी 1986 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी. वे चाहते थे कि विवादित परिसर का ताला खोलने के फैसले पर रोक लगाई जाए.
अयोध्या की विवादित ज़मीन से जुड़े मामले अब तक फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में किसी अंज़ाम तक नहीं पहुंचे थे. विवादित परिसर तब तक बड़ा सियासी मुद्दा बन चुका था और मामला दिन ब दिन उलझता जा रहा था.
उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करके फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में चल रहे मुकदमो की सुनवाई हाईकोर्ट में चलाने की मांग की. यूपी सरकार का कहना था कि इन मुकदमों के वादियों के बीच आपस में टकराव से अमन-चैन बिगड़ने का खतरा है. इससे विवादित ज़मीन पर यथास्थिति बहाल रखने में भी परेशानी हो सकती
इलाहाबाद, 14 अगस्त 1989
इलाहाबाद हाईकोर्ट की फुल बेंच ने यूपी सरकार की याचिका मंजूर कर ली. हाईकोर्ट ने अयोध्या में विवादित परिसर की यथास्थिति बहाल रखने का आदेश दिया. साथ ही गोपाल सिंह विशारद, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के मुकदमों की सुनवाई के लिए हाईकोर्ट के तीन जजों की स्पेशल बेंच का गठन कर दिया.
1950 से 1989 तक फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में चल रहे मुकदमों का उलझा जाल अब हाईकोर्ट को सुलझाना था. चार मुकदमे पहले से थे और हाईकोर्ट में मामला आते ही सामने आ गई एक और याचिका, जिसे हाईकोर्ट के पूर्व जज देवकीनंदन अग्रवाल ने रामभक्तों की ओर से दाखिल किया था.
देवकीनंदन अग्रवाल ने श्री रामलला विराजमान और श्री राम जन्मस्थान समिति नाम के हिंदू समूहों की ओर से याचिका पेश की. उनकी दलील थी कि विवादित ज़मीन पर हिंदू लोग सनातन काल से पूजा करते आए हैं. यहां का भवन जर्जर हो चुका है और अब राम भक्त वहां नया भव्य मंदिर बनाना चाहते हैं, लिहाज़ा उन्हें मंदिर बनाने से रोका ना जाए.
अक्टूबर 1991 में उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने विवादित परिसर से सटी 2.77 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया. सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने हाईकोर्ट में अपील की, तो हाईकोर्ट ने ज़मीन का मालिकाना हक़ ना बदलने और स्थायी निर्माण ना करने का निर्देश दिया.
1989 से 1994 तक का दौर अयोध्या कांड के नाम रहा. हिंसा, तोड़-फोड़ और सियासी रस्साकशी के चक्कर में ज़मीन के मालिकाना हक़ के मुकदमों में कोई प्रगति नहीं हुई. इससे जुड़ी कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचीं.फिर 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या ज़मीन विवाद से जुड़े सभी अदालतों के अंतरिम आदेशों को खारिज कर दिया और निर्देश दिया कि हाईकोर्ट का फैसला आने तक अयोध्या में यथास्थिति बहाल रखी जाए.
सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद विवादित ज़मीन के मुकदमों की सुनवाई तेज़ हुई.23 जुलाई 1996 से विवादित ज़मीन के मालिकाना हक की याचिकाओं पर सुनवाई का अंतिम दौर शुरू हुआ. अब तक सिर्फ दावे करते रहे याचिकाकर्ताओं को अब अपने दावों के समर्थन में सबूत और गवाह पेश करने थे.
अयोध्या की विवादित ज़मीन के इस टुकड़े को लेकर हिंदू और मुसलमान- दोनों 16 जनवरी 1950 से ही अदालत में यही दावा कर रहे थे कि ये उनका धर्मस्थान है. फिर जब अदालत में सबूत पेश करने की बारी आई, तो अपना-अपना मालिकाना हक़ साबित करने के लिए सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा अपने-अपने दस्तावेज़ों के साथ पेश हो गए. इसमें सबसे अहम था रेवेन्यू रिकॉर्ड.., लेकिन उस पर भी विवाद था. लिहाजा 23 मई 1990 को हाईकोर्ट ने मौका मुआयना करने के लिए कमीशन नियुक्त कर दिया. 18 सितंबर 1990 को हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि 1861 के राजस्व बंदोबस्त के मुताबिक प्लॉट नंबर 163 और 1837 के बंदोबस्त के मुताबिक प्लॉट नंबर 159 और 160 का सर्वे करके रिपोर्ट पेश की जाए.
 26 फरवरी 1991 को कमिश्नर जे पी श्रीवास्तव ने अपनी रिपोर्ट अदालत में पेश की, लेकिन दोनों पक्षों की बहस के बाद हाईकोर्ट ने 8 जुलाई 1991 को ये रिपोर्ट रद्द कर दी और विवादित ज़मीन से जुड़े याचिकाकर्ताओं को सबूत पेश करने को कहा.
अपने-अपने सबूतों के साथ हर याचिकाकर्ता के पास गवाहों की फौज थी. विवादित ज़मीन के पहले वादी गोपाल सिंह विशारद ने 3 गवाह पेश किए, तो निर्मोही अखाड़े ने 20 और देवकीनंदन अग्रवाल ने 16 और सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड ने 28 गवाह पेश कर दिए.
सबूतों और गवाहों की जिरह में वक्त लग रहा था. इसलिए 2002 में अयोध्या ज़मीन विवाद के मुकदमों की रोज़ाना सुनवाई शुरू कर दी गई. हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में सुनवाई तेज़ हुई, तो अदालत ने 5 मार्च 2003 को इस मामले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सबूत ढूंढने की जिम्मेदारी सौंपी और वो भी जल्द से जल्द.
एएसआई की टीम अयोध्या में विवादित परिसर में खुदाई करके ये पता लगाने में जुट गई कि यहां मंदिर था या मस्जिद..? लेकिन, इस खुदाई से भी जुड़ा एक विवाद हाईकोर्ट जा पहुंचा.
अयोध्या विवाद भारत के हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच तनाव का एक प्रमुख मुद्दा रहा है और देश की राजनीति को एक लंबे अरसे से प्रभावित करता रहा है.

भारतीय जनता पार्टी और विश्वहिंदू परिषद सहित कई हिंदू संगठनों का दावा है कि हिंदुओं के आराध्यदेव राम का जन्म ठीक वहीं हुआ जहाँ बाबरी मस्जिद थी.

उनका दावा है कि बाबरी मस्जिद दरअसल एक मंदिर को तोड़कर बनवाई गई थी और इसी दावे के चलते छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई.

इसके अलावा वहाँ ज़मीन के मालिकाना कब्ज़े का विवाद है.

मामले-मुक़दमे अदालतों में चल रहे हैं और इस बीच लिब्राहन आयोग ने अपनी रिपोर्ट दे दी है.

जानिए अयोध्या में कैसे घूमा है समय का पहिया पिछली पाँच सदियों में.

1528:
अयोध्या में एक ऐसे स्थल पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया जिसे कुछ हिंदू अपने आराध्य देवता राम का जन्म स्थान मानते हैं. समझा जाता है कि मुग़ल सम्राट बाबर ने यह मस्जिद बनवाई थी जिस कारण इसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता था.

हिंदू उस जगह पर राम मंदिर बनाना चाहते हैं

1853:
पहली बार इस स्थल के पास सांप्रदायिक दंगे हुए.

1859:
ब्रितानी शासकों ने विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों को और बाहरी हिस्से में हिंदुओं को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी.
1949: भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में पाई गयीं. कथित रुप से कुछ हिंदूओं ने ये मूर्तियां वहां रखवाईं थीं. मुसलमानों ने इस पर विरोध व्यक्त किया और दोनों पक्षों ने अदालत में मुकदमा दायर कर दिया. सरकार ने इस स्थल को विवादित घोषित करके ताला लगा दिया.

1984:
कुछ हिंदुओं ने विश्व हिंदू परिषद के नेतृत्व में भगवान राम के जन्म स्थल को "मुक्त" करने और वहाँ राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया. बाद में इस अभियान का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी के एक प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी ने संभाल लिया.
1986: ज़िला मजिस्ट्रेट ने हिंदुओं को प्रार्थना करने के लिए विवादित मस्जिद के दरवाज़े पर से ताला खोलने का आदेश दिया. मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया.

1989:
विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज़ किया और विवादित स्थल के नज़दीक राम मंदिर की नींव रखी.
1990: विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने बाबरी मस्जिद को कुछ नुक़सान पहुँचाया. तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने वार्ता के ज़रिए विवाद सुलझाने के प्रयास किए मगर अगले वर्ष वार्ताएँ विफल हो गईं.

1992:
विश्व हिंदू परिषद, शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया. इसके परिणामस्वरूप देश भर में हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे जिसमें 2000 से ज़्यादा लोग मारे गए.
1998: प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने गठबंधन सरकार बनाई.

2001:
बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी पर तनाव बढ़ गया और विश्व हिंदू परिषद ने विवादित स्थल पर राम मंदिर निर्माण करने के अपना संकल्प दोहराया.

हिंदू संगठनों के कार्यकर्ताओं ने छह दिसंबर, 1992 को विवादित ढाँचा गिरा दिया था

जनवरी 2002: अयोध्या विवाद सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री वाजपेयी ने अयोध्या समिति का गठन किया. वरिष्ठ अधिकारी शत्रुघ्न सिंह को हिंदू और मुसलमान नेताओं के साथ बातचीत के लिए नियुक्त किया गया.

फ़रवरी 2002: भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अपने घोषणापत्र में राम मंदिर निर्माण के मुद्दे को शामिल करने से इनकार कर दिया. विश्व हिंदू परिषद ने 15 मार्च से राम मंदिर निर्माण कार्य शुरु करने की घोषणा कर दी. सैकड़ों हिंदू कार्यकर्ता अयोध्या में इकठ्ठा हुए. अयोध्या से लौट रहे हिंदू कार्यकर्ता जिस रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे उस पर गोधरा में हुए हमले में 58 कार्यकर्ता मारे गए.
13 मार्च, 2002: सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में कहा कि अयोध्या में यथास्थिति बरक़रार रखी जाएगी और किसी को भी सरकार द्वारा अधिग्रहीत ज़मीन पर शिलापूजन की अनुमति नहीं होगी. केंद्र सरकार ने कहा कि अदालत के फ़ैसले का पालन किया जाएगा.

15
मार्च, 2002: विश्व हिंदू परिषद और केंद्र सरकार के बीच इस बात को लेकर समझौता हुआ कि विहिप के नेता सरकार को मंदिर परिसर से बाहर शिलाएं सौंपेंगे. रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत परमहंस रामचंद्र दास और विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल के नेतृत्व में लगभग आठ सौ कार्यकर्ताओं ने सरकारी अधिकारी को अखाड़े में शिलाएं सौंपीं.
22 जून, 2002: विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर निर्माण के लिए विवादित भूमि के हस्तांतरण की माँग उठाई.

जनवरी 2003: रेडियो तरंगों के ज़रिए ये पता लगाने की कोशिश की गई कि क्या विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद परिसर के नीचे किसी प्राचीन इमारत के अवशेष दबे हैं, कोई पक्का निष्कर्ष नहीं निकला.
मार्च 2003: केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से विवादित स्थल पर पूजापाठ की अनुमति देने का अनुरोध किया जिसे ठुकरा दिया गया.

अप्रैल 2003: इलाहाबाद हाइकोर्ट के निर्देश पर पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने विवादित स्थल की खुदाई शुरू की, जून महीने तक खुदाई चलने के बाद आई रिपोर्ट में कहा गया है कि उसमें मंदिर से मिलते जुलते अवशेष मिले हैं.
मई 2003: सीबीआई ने 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी सहित आठ लोगों के ख़िलाफ पूरक आरोपपत्र दाखिल किए.

जून 2003: काँची पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती ने मामले को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की और उम्मीद जताई कि जुलाई तक अयोध्या मुद्दे का हल निश्चित रूप से निकाल लिया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.

हाईकोर्ट ने आडवाणी पर आपराधिक मुक़दमा चलाने की अनुमति नहीं दी है

अगस्त 2003: भाजपा नेता और उप प्रधानमंत्री ने विहिप के इस अनुरोध को ठुकराया कि राम मंदिर बनाने के लिए विशेष विधेयक लाया जाए.

अप्रैल 2004: आडवाणी ने अयोध्या में अस्थायी राममंदिर में पूजा की और कहा कि मंदिर का निर्माण ज़रूर किया जाएगा.
जुलाई 2004: शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे ने सुझाव दिया कि अयोध्या में विवादित स्थल पर मंगल पांडे के नाम पर कोई राष्ट्रीय स्मारक बना दिया जाए.

जनवरी 2005: लालकृष्ण आडवाणी को अयोध्या में छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस में उनकी कथित भूमिका के मामले में अदालत में तलब किया गया.
जुलाई 2005: पाँच हथियारबंद चरमपंथियों ने विवादित परिसर पर हमला किया जिसमें पाँचों चरमपंथियों सहित छह लोग मारे गए, हमलावर बाहरी सुरक्षा घेरे के नज़दीक ही मार डाले गए.

06
जुलाई 2005 : इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बाबरी मस्जिद गिराए जाने के दौरान 'भड़काऊ भाषण' देने के मामले में लालकृष्ण आडवाणी को भी शामिल करने का आदेश दिया. इससे पहले उन्हें बरी कर दिया गया था.
28 जुलाई 2005 : लालकृष्ण आडवाणी 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में गुरूवार को रायबरेली की एक अदालत में पेश हुए. अदालत ने लालकृष्ण आडवाणी के ख़िलाफ़ आरोप तय किए.

04
अगस्त 2005: फ़ैजाबाद की अदालत ने अयोध्या के विवादित परिसर के पास हुए हमले में कथित रूप से शामिल चार लोगों को न्यायिक हिरासत में भेजा.

लिब्रहान आयोग ने 17 सालों बाद अपनी रिपोर्ट सौंप दी है

20
अप्रैल 2006 : कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार ने लिब्रहान आयोग के समक्ष लिखित बयान में आरोप लगाया कि बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा था और इसमें भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, बजरंग दल और शिव सेना की 'मिलीभगत' थी.

जुलाई 2006 : सरकार ने अयोध्या में विवादित स्थल पर बने अस्थाई राम मंदिर की सुरक्षा के लिए बुलेटप्रूफ़ काँच का घेरा बनाए जाने का प्रस्ताव किया. इस प्रस्ताव का मुस्लिम समुदाय ने विरोध किया और कहा कि यह अदालत के उस आदेश के ख़िलाफ़ है जिसमें यथास्थिति बनाए रखने के निर्देश दिए गए थे.
19 मार्च 2007 : कांग्रेस सांसद राहुल गाँधी ने चुनावी दौरे के बीच कहा कि अगर नेहरू-गाँधी परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री होता तो बाबरी मस्जिद गिरी होती. उनके इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हुई.

30
जून 2009: बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले की जाँच के लिए गठित लिब्रहान आयोग ने 17 वर्षों के बाद अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी.
सात जुलाई, 2009: उत्तरप्रदेश सरकार ने एक हलफ़नामे में स्वीकार किया कि अयोध्या विवाद से जुड़ी 23 महत्वपूर्ण फ़ाइलें सचिवालय से ग़ायब हो गई हैं.

24
नवंबर, 2009: लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश. आयोग ने अटल बिहारी वाजपेयी और मीडिया को दोषी ठहराया और नरसिंह राव को क्लीन चिट दी.
20 मई, 2010: बाबरी विध्वंस के मामले में लालकृष्ण आडवाणी और अन्य नेताओं के ख़िलाफ़ आपराधिक मुक़दमा चलाने को लेकर दायर पुनरीक्षण याचिका हाईकोर्ट में ख़ारिज.

26
जुलाई, 2010: रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद पर सुनवाई पूरी