Tuesday, October 12, 2010

जीवन में सही-गलत को पहचानना बड़ी चुनौती

जीवन में दो बड़े खतरे हैं : ज्ञान का खतरा अहंकार और भक्ति का खतरा आलस्य। आज के विकास के युग में आलस्य अपराध है। घोर परिश्रम के दौर में आलस्य दुगरुण बनकर हमारी परिश्रमी वृत्ति पर प्रहार करता है। भक्त होना एक योग्यता है। भक्ति को केवल क्रिया न मानें, यह जीवन शैली है।

फकीरों ने भक्ति को बीज बताते हुए कहा है, ऐसा बीज कभी भी निष्फल नहीं जाता। युग बीत जाने पर भी इसके परिणाम में फर्क नहीं आएगा। भक्ति बीज पलटे नहीं, जो जुग जाय अनंत। कबीर एक जगह कह गए हैं कि इस सीढ़ी पर लगन और परिश्रम से चढ़ना पड़ता है।

जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछिताय। साधना के मार्ग में आलस्य कभी-कभी सीधे प्रवेश नहीं करता, वह रूप बनाकर भी आता है। भक्ति के मार्ग पर चलते हुए कई भक्तों को यह भी लगता है कि हम जिस राह पर हैं, वह सही भी है या नहीं?

जीवन में सही-गलत को पहचानना भी बड़ी चुनौती है। आस्तिकता का एक रास्ता है और नास्तिकता के दस। भरोसे की एक किरण हाथ लगती है तो संदेह का बड़ा अंधकार आ घेरता है। इसीलिए लोग नास्तिक हो जाते हैं। महात्माओं, फकीरों ने इस झंझट से बचने का एक सरल तरीका बताया है, वह है भरोसा।

इस निर्णय से हम कहीं पहुंच भी जाएंगे, वरना जीवन भर भटकते रहेंगे। करने वाले हम होते हैं, कराने वाला दूसरा। यहीं से आज के कर्म-युग में शांति प्राप्त हो जाएगी। अत: एक बार भक्ति को भरोसे से जोड़ दें।

Wednesday, October 6, 2010

फिर होगी राम की अग्निपरीक्षा

अब चूंकि फैसला हो गया है, जो हमारे भारत की भावात्मक-रागात्मक एकता, सांस्कृतिक परंपरा और आस्था के अनुकूल है, इसलिए इस बात पर कुछ क्षण के लिए विचार किया जा सकता है कि यदि यह फैसला इसके विपरीत होता तो क्या होता? 

अयोध्या के ऐतिहासिक फैसले के बाद कुछ महानुभावों ने अपनी प्रतिक्रिया में इस बात पर खुशी जाहिर की कि ‘अब तो अदालत से भी सिद्ध हो गया कि भगवान राम थे और वे हमारे आराध्य हैं।’ ऐसी ही खुशी का भाव कई अन्य के चेहरों पर था कि अदालत ने भगवान राम के जन्म होने के स्थान पर मुहर लगा दी है यानी परोक्ष रूप से मान लिया है कि भगवान राम थे। कुछ लोग तो इस सीमा तक विश्लेषण करने लगे कि भगवान राम, भगवान के रूप में न सही पर हमारे पूर्वज के रूप में तो सभी को स्वीकार्य होने चाहिए। 

ऐसे ही और भी कई तर्क इस अदालत के फैसले के बरक्स किए जा सकते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने फैसला सुनाकर अपनी तरफ से एक लंबे और बहुप्रतीक्षित विवाद का सर्वमान्य हल देने का प्रयास किया है, लेकिन खेद का विषय है कि हम अपने तर्को के सहारे उसी फैसले के मद्देनजर नए विवादों को जन्म देने की कोशिश में लगे हैं।
यह अस्वाभाविक या असंभव भी नहीं है। जब भी आस्था को तर्को-वितर्को की कसौटी पर कसा जाएगा, गवाहों, सबूतों और अभिलेखों के आधार पर सिद्ध किया जाएगा, ऐसे विवाद उठने स्वाभाविक हैं। ऐसे ही विवाद हमारी समझदारी और सहिष्णुता की परीक्षा लेते हैं। परीक्षा धर्य और संयम की भी होती है। यही विवाद कालान्तर में उन्माद को जन्म देते हैं, जिसकी विभीषिका हमने सन १९९२ में देखी है। 

प्रश्न यह है कि हम आस्था को अदालत की कसौटी पर कसने का प्रयास क्यों करते हैं? ईश्वर का अस्तित्व आस्था का प्रश्न है, तर्क और सबूतों का नहीं। हम में से कई लोग ऐसे भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते। कुछ ऐसे भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते पर किसी वैश्विक ऊर्जा या शक्ति को मानते हैं, जो इस पूरे ब्रrांड के प्रपंच को संचालित कर रही है। ईश्वर का होना एक विश्वास है, तो ईश्वर का न होना भी एक विश्वास है। हिंदू धर्मावलंबियों में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का संदर्भ आता है। हरेक को अपनी आस्था के अनुरूप ईश्वर के स्वरूप को चुनने की स्वतंत्रता है। 

इसके अलावा धर्म में ऋषि, मनीषियों, संतों, महात्माओं की एक विशाल परंपरा है, जिन्हें देवतुल्य मानकर उनकी उपासना की जाती है। इसके अलावा कई और प्रतीक भी हैं, जिन्हें देवतुल्य आदर प्राप्त है और उन्हें भी उसी तरह पूजा जाता है, आराधना की जाती है। 

इन प्रतीकों में नदियां हैं, पर्वत हैं, पेड़ हैं और भी न जाने क्या-क्या है। लेकिन सभी अपनी-अपनी तरह से आस्था के स्थान हैं और श्रद्धालुओं के विश्वास के कारण दैवीय आभा से परिपूर्ण हैं। प्रश्न यह है कि क्या इन सभी के अस्तित्व को कसौटी पर कसने के लिए हमें हर बार अदालत का सहारा लेना पड़ेगा और क्या हर बार हम अदालत के फैसले के बाद ही अपनी आस्थाओं की पुष्टि कर पाएंगे। आस्था के अदालतों द्वारा प्रमाणीकरण का सिलसिला क्या यूं ही चलता रहेगा?

अब चूंकि फैसला हो गया है, जो हमारे भारत की भावात्मक-रागात्मक एकता, सांस्कृतिक परंपरा और आस्था के अनुकूल है, इसलिए इस बात पर कुछ क्षण के लिए विचार किया जा सकता है कि यदि यह फैसला इसके विपरीत होता तो क्या होता? यदि माननीय उच्च न्यायालय भगवान श्रीराम के जन्मस्थान के बारे में या उनके अस्तित्व के बारे में विपरीत फैसला देता या मौन रह जाता, तब हम हमारी आस्था के लिए कैसी प्रतिक्रिया देते, यह सोचने का विषय है। 

क्या हम तब भगवान श्रीराम को मानना छोड़ देते या उन्हें अपना पूर्वज मानने से इनकार कर देते? क्या हम उन तर्को के सामने अपनी आस्था के प्रश्न को गौण मानकर छोड़ देते? क्या तब हमारी भगवान श्रीराम के प्रति आस्था में, उनके प्रति भक्ति भाव में कमी आती और तब क्या हम उनकी उपासना करना छोड़ देते? नहीं, हम ऐसा हरगिज नहीं कर पाते। तब फिर हम आस्था के विषय को अदालत की कसौटी पर ले जाकर माननीय अदालत के सामने भी एक बड़ा प्रश्नचिह्न् क्यों छोड़ देते हैं? कई सौ वर्षो की गुलामी के काल में भी भारत पर शासन करने वालों ने भारतीयों की आस्था के विषय पर कभी कोई प्रश्नचिह्न् नहीं लगाया। 

वे भारतीयों पर शासन करते रहे लेकिन भारतीयों की आस्था के साथ ही जीते रहे। खेद का विषय है कि आज हम आजाद भारत में अपने ही बनाए कानून के तहत आस्था पर सवाल उठा रहे हैं और अदालतों के माध्यम से उसे सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं। आज जो लोग माननीय उच्च न्यायालय द्वारा भगवान श्रीराम का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर हर्ष व्यक्त कर रहे हैं, क्या उन्होंने कभी इस बात की पड़ताल की है कि इसके विपरीत फैसला आने पर उनकी प्रतिक्रिया क्या होती। हमारे जीवन में कुछ तो ऐसा होना चाहिए, जो तर्को-वितर्को से परे हो और जिसे गवाहों, सबूतों, दस्तावेजों के आधार पर नहीं, अपने भाव से तौला जा सके।

अब फिर कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात कह रहे हैं। फिर तर्क-वितर्क होंगे। गवाह पेश होंगे, सबूत दिए जाएंगे, अभिलेख दिखाए जाएंगे। फिर से जमीन के हक की और उसके बंटवारे की बात होगी। यानी एक बार फिर प्रश्न उठेगा कि भगवान राम वहां जन्मे थे या नहीं, साथ ही यह भी कि भगवान राम थे भी या नहीं। 

यानी एक बार फिर राम की अग्नि परीक्षा होगी। सीता मैया की अग्नि परीक्षा लेकर तुमने यह क्या अनर्थ कर दिया प्रभु कि इस कलियुग में तुम्हें बार-बार अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ रहा है

क्या बिहार के 43 प्रतिशत लोग अपराधी हैं

 बिहार में विधानसभा चुनाव जोरो पर हैं। सभी दल विकास के नाम पर वोट मांगने की बात कर रहे हैं। नीतीश कुमार तो अपने मुख्यमंत्रीकाल के दौरान किए गए विकास कार्यों का गुणगान करने में लगे हैं। लेकिन अब तक बिहार चुनाव की जो तस्वीर सामने आई है वो सवाल खड़ा कर रही है कि क्या बिहार के 43 प्रतिशत लोग अपराधी हैं? हम ये इसलिए पूछ रहे हैं क्योंकि बिहार के लोगों का प्रतिनिधित्व करने के लिए जो लोग सामने आए हैं उनमें से ज्यादातर अपराधी हैं। बाकी आप हेमंत अत्री की यह रिपोर्ट पढ़कर समझ जाएंगे...

मात्र 24 घंटे पहले चुनाव आयोग की सर्वदलीय बैठक में राजनीति का अपराधीकरण रोकने की खुली वकालत करने वाले सियासी दलों की इस मामले में गंभीरता का अंदाजा बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अब तक जारी प्रत्याशियों की सूचियों के विश्लेषण से लग जाता है। अब तक चुनाव के लिए पांच प्रमुख दलों ने कुल 526 प्रत्याशी घोषित किए हैं जिनमें से 268 के पुराने रिकॉर्ड मौजूद हैं। 

इनमें से 116 प्रत्याशियों (43.28 फीसदी) के खिलाफ आम मामलों से लेकर हत्या, अवैध हिरासत, फिरौती व लूटपाट जैसे गंभीर मामले लंबित हैं। हैरानी की बात यह है कि दागी छवि के लोगों को टिकट देने में खुद को पार्टी विद ए डिफरेंस कहने वाली भाजपा सबसे आगे है। पार्टी द्वारा अब तक घोषित 87 प्रत्याशियों मंे 66 के पुराने शपथपत्र उपलब्ध हैं और इनमें से 41 (62.12 फीसदी) के खिलाफ आपराधिक मामले जारी हैं। दूसरा स्थान रामविलास पासवान की अगुआई वाली लोजपा का है जिसके 67 में से 28 प्रत्याशियों का रिकॉर्ड मौजूद हैं और उनमें 13 (46.43 फीसदी) दागी छवि के हैं। 

लालू यादव की राजद के 118 में 57 प्रत्याशियों का रिकॉर्ड उपलब्ध है जिनमें से 22 (38.60 फीसदी) के खिलाफ ऐसे मामले बकाया हैं। सत्तारूढ़ जनता दल यूनाईटेड भी इसमें पीछे नहीं है और उसके 132 में से 86 प्रत्याशियों का रिकॉर्ड उपलब्ध है। इनमें से 31 (36.05 फीसदी) का दागी इतिहास रहा है। नेशनल इलेक्शन वॉच नामक स्वंयसेवी संस्था द्वारा जुटाए गए आंकड़ों में सोनिया गांधी की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी दागी छवि के प्रत्याशी उतारने में पीछे नहीं है। 

कांग्रेस ने अब तक राज्य में 122 टिकट घोषित किए हैं और इनमें से 31 प्रत्याशियों का पुराना रिकार्ड उपलब्ध है। इनमें से नौ प्रत्याशी (29.03 फीसदी) दागी छवि के हैं। यह आंकड़ा सभी प्रत्याशियों के नामांकनों के दौरान भरे जाने वाले शपथपत्रों के बाद एकाएक बढ़ जाने की पूरी आशंका है। यह हालात तब है जब मात्र एक दिन पहले देश के सभी राष्ट्रीय व प्रादेशिक सियासी दलों के अगुआ केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में इस तरह के प्रत्याशियों को मैदान में न उतारे जाने की वकालत खुलकर कर चुके हैं। 

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति बिहार में प्रत्याशियों की आपराधिक पृष्ठभूमि को लेकर खासे चिंतित हैं। उनका कहना है कि लोकतंत्र में लोगों की इच्छा प्रदर्शित होनी चाहिए। बाहुबल और धनबल लोगों की इच्छा के प्रतीक नहीं हो सकते। ऐसे लोगों को उनका प्रतिनिधि नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र की पवित्रता उसके जनप्रतिनिधियों की पवित्रता में ही निहित है और सभी दलों को प्रत्याशी उतारते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए

Friday, October 1, 2010

अयोध्या

अयोध्या की ज़मीन का टुकड़ा जितना छोटा है, उतना ही बड़ा है इस ज़मीन से जुड़ा विवाद. यह विवाद आस्था को अदालती मान्यता दिलाने के मुकदमे से शुरू हुआ और धीरे-धीरे बदल गया ऐतिहासिक कानूनी जंग में कि अयोध्या के रामकोट गांव के प्लॉट नंबर 159/160 का मालिक कौन है?
अयोध्या की विवादित ज़मीन के बारे में ज़्यादातर लोग यही समझते हैं कि यह मुकदमा निर्मोही अखाड़े और सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड के बीच है. लेकिन असल में विवादित ज़मीन पर मुकदमेबाज़ी की नींव अयोध्या के एक ऐसे शख्स ने रखी, जो ज़मीन पर ना तो मालिकाना हक़ चाहता था और ना ही किसी को बेदखल करना.
22-23 दिसंबर 1949 की रात अयोध्या में विवादित परिसर में मूर्तियां रख दिए जाने का मामला गर्म था. प्रशासन ने विवादित परिसर पर ताला तो जड़ दिया, लेकिन मूर्तियों को जस का तस रहने दिया. विवादित परिसर पर 5 जनवरी 1950 को अयोध्या नगर पालिका के चेयरमैन प्रियदत्त राम को रिसीवर नियुक्त कर दिया गया.
16 जनवरी 1950, अयोध्या के विवादित परिसर पर ताला लटका था जहां ना आरती हो सकती थी, ना अज़ान. ऐसे में अयोध्या के निवासी गोपाल सिंह विशारद ने सिविल जज एन एन चड्ढा की अदालत में अर्ज़ी देकर कहा कि यहां राम चबूतरा और सीता रसोई में वह 1934 से ही पूजा-पाठ करते रहे हैं, लिहाज़ा उन्हें पूजा-अर्चना और भगवान को भोग चढ़ाने की अनुमति दी जाए. सिविल जज ने उन्हें विवादित परिसर में पूजा करने और भगवान को भोग लगाने की सशर्त अनुमति दे दी.
कुछ स्थानीय मुसलमानों ने सिविल जज के आदेश के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की, लेकिन 26 अप्रैल 1955 को हाईकोर्ट ने सिविल जज के अंतरिम आदेश की पुष्टि करते हुए याचिका खारिज कर दी.
गोपाल सिंह विशारद की याचिका पर सिविल जज ने जो आदेश दिया, उसके बाद अयोध्या में करीब 9 साल तक कोई बड़ी उथल-पुथल नहीं मची.
अयोध्या, 1959
निर्मोही अखाड़े ने विवादित ज़मीन पर पहली बार खुलकर दावा ठोंका. निर्मोही अखाड़े ने अयोध्या की विवादित ज़मीन को अपने न्यास की संपत्ति बताते हुए सिविल जज की अदालत में याचिका दायर कर दी. 1959 के वाद संख्या 26 में निर्मोही अखाड़े ने विवादित परिसर के रिसीवर प्रियदत्त राम और यूपी सरकार को प्रतिवादी बनाया.
निर्मोही अखाड़े का दावा था कि विवादित ढांचे में निर्मोही अखाड़े ने ही मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा कराई. जहां अनादि काल से निर्मोही अखाड़े के साधु-संत पूजा करते रहे हैं. इस मंदिर का प्रबंध भी निर्मोही अखाड़ा ही देखता रहा है. लेकिन 29 दिसंबर 1949 से यहां रिसीवर बैठा दिया गया. निर्मोही अखाड़े ने अदालत से मांग की कि रिसीवर हटाकर विवादित परिसर का प्रबंध उसे दोबारा सौंपा जाए
दावे का आधार क्या है.
निर्मोही अखाड़े की याचिका पर अदालती सुनवाई आगे बढ़ने से पहले ही विवादित ज़मीन पर मालिकाना हक़ का एक और मुकदमा शुरू हो गया. सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड ने अयोध्या के मोहम्मद हाशिम समेत पांच लोगों के ज़रिए 18 दिसंबर 1961 को फैज़ाबाद के सिविल जज की अदालत में याचिका दायर की.
1961 के इस वाद संख्या 12 में गोपाल सिंह विशारद को प्रतिवादी बनाते हुए सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने दावा किया है कि विवादित परिसर को लोग बाबरी मस्जिद के नाम से जानते हैं. जहां ज़बर्दस्ती मूर्तियां रख दी गईं. लिहाज़ा यहां से मूर्तियां हटाई जाएं और बाबरी मस्जिद और उससे सटे कब्रिस्तान की ज़मीन वक्फ बोर्ड को सौंपी जाए.
गोपाल सिंह विशारद ने पूजा की इजाज़त मांगी थी, लेकिन निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड के मुकदमों के बाद फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में अयोध्या के विवादित परिसर का मसला मालिकाना हक़ के कानूनी दांवपेंच में उलझ गया. 1964 में सिविल जज की अदालत ने सभी मुकदमों में इश्यू तय कर दिया और सुनवाई शुरू हो गई.
अगले 22 साल तक विवादित ज़मीन को लेकर सिविल जज की अदालत में सुनवाई चलती रही. निर्मोही अखाड़ा इसे राम जन्मस्थान बताता रहा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड बाबरी मस्जिद. मालिकाना हक के इस झगड़े के बीच में था गोपाल सिंह विशारद की आस्था का मुकदमा.
ताला खोलने का आदेश कैसे मिला
विशारद की ही 1950 वाली याचिका को आधार बनाते हुए फैजाबाद के वकील उमेश चंद्र पांडेय ने 21 जनवरी 1986 को मुंसिफ सदर की अदालत में वाद दाखिल कर दिया.
उमेश चंद्र पांडेय की मांग थी कि अयोध्या के विवादित परिसर का ताला खोला जाए और वहां सबको पूजा और दर्शन करने की छूट दी जाए. फैजाबाद के मुंसिफ सदर की अदालत ने एक हफ्ते बाद फैसला सुनाया. उन्होंने कहा कि सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के 1961 के मुकदमे की फाइल की गैरमौजूदगी में ऐसा कोई आदेश नहीं दिया जा सकता.
अयोध्या, 1 फरवरी 1986
मुंसिफ सदर के फैसले के खिलाफ़ उमेश चंद्र पांडेय ने फैजाबाद के ज़िला जज की अदालत का दरवाज़ा खटखटाया. फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज़ के एम पांडेय ने विवादित परिसर का ताला खोलने का आदेश दिया.
ज़िला जज़ के इस आदेश के बाद विवादित ज़मीन के मुकदमों का नया दौर शुरू हुआ. ताला खोलने के फैसले के खिलाफ़ मोहम्मद हाशिम ने 8 फरवरी 1986 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी. वे चाहते थे कि विवादित परिसर का ताला खोलने के फैसले पर रोक लगाई जाए.
अयोध्या की विवादित ज़मीन से जुड़े मामले अब तक फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में किसी अंज़ाम तक नहीं पहुंचे थे. विवादित परिसर तब तक बड़ा सियासी मुद्दा बन चुका था और मामला दिन ब दिन उलझता जा रहा था.
उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करके फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में चल रहे मुकदमो की सुनवाई हाईकोर्ट में चलाने की मांग की. यूपी सरकार का कहना था कि इन मुकदमों के वादियों के बीच आपस में टकराव से अमन-चैन बिगड़ने का खतरा है. इससे विवादित ज़मीन पर यथास्थिति बहाल रखने में भी परेशानी हो सकती
इलाहाबाद, 14 अगस्त 1989
इलाहाबाद हाईकोर्ट की फुल बेंच ने यूपी सरकार की याचिका मंजूर कर ली. हाईकोर्ट ने अयोध्या में विवादित परिसर की यथास्थिति बहाल रखने का आदेश दिया. साथ ही गोपाल सिंह विशारद, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के मुकदमों की सुनवाई के लिए हाईकोर्ट के तीन जजों की स्पेशल बेंच का गठन कर दिया.
1950 से 1989 तक फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में चल रहे मुकदमों का उलझा जाल अब हाईकोर्ट को सुलझाना था. चार मुकदमे पहले से थे और हाईकोर्ट में मामला आते ही सामने आ गई एक और याचिका, जिसे हाईकोर्ट के पूर्व जज देवकीनंदन अग्रवाल ने रामभक्तों की ओर से दाखिल किया था.
देवकीनंदन अग्रवाल ने श्री रामलला विराजमान और श्री राम जन्मस्थान समिति नाम के हिंदू समूहों की ओर से याचिका पेश की. उनकी दलील थी कि विवादित ज़मीन पर हिंदू लोग सनातन काल से पूजा करते आए हैं. यहां का भवन जर्जर हो चुका है और अब राम भक्त वहां नया भव्य मंदिर बनाना चाहते हैं, लिहाज़ा उन्हें मंदिर बनाने से रोका ना जाए.
अक्टूबर 1991 में उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने विवादित परिसर से सटी 2.77 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया. सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने हाईकोर्ट में अपील की, तो हाईकोर्ट ने ज़मीन का मालिकाना हक़ ना बदलने और स्थायी निर्माण ना करने का निर्देश दिया.
1989 से 1994 तक का दौर अयोध्या कांड के नाम रहा. हिंसा, तोड़-फोड़ और सियासी रस्साकशी के चक्कर में ज़मीन के मालिकाना हक़ के मुकदमों में कोई प्रगति नहीं हुई. इससे जुड़ी कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचीं.फिर 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या ज़मीन विवाद से जुड़े सभी अदालतों के अंतरिम आदेशों को खारिज कर दिया और निर्देश दिया कि हाईकोर्ट का फैसला आने तक अयोध्या में यथास्थिति बहाल रखी जाए.
सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद विवादित ज़मीन के मुकदमों की सुनवाई तेज़ हुई.23 जुलाई 1996 से विवादित ज़मीन के मालिकाना हक की याचिकाओं पर सुनवाई का अंतिम दौर शुरू हुआ. अब तक सिर्फ दावे करते रहे याचिकाकर्ताओं को अब अपने दावों के समर्थन में सबूत और गवाह पेश करने थे.
अयोध्या की विवादित ज़मीन के इस टुकड़े को लेकर हिंदू और मुसलमान- दोनों 16 जनवरी 1950 से ही अदालत में यही दावा कर रहे थे कि ये उनका धर्मस्थान है. फिर जब अदालत में सबूत पेश करने की बारी आई, तो अपना-अपना मालिकाना हक़ साबित करने के लिए सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा अपने-अपने दस्तावेज़ों के साथ पेश हो गए. इसमें सबसे अहम था रेवेन्यू रिकॉर्ड.., लेकिन उस पर भी विवाद था. लिहाजा 23 मई 1990 को हाईकोर्ट ने मौका मुआयना करने के लिए कमीशन नियुक्त कर दिया. 18 सितंबर 1990 को हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि 1861 के राजस्व बंदोबस्त के मुताबिक प्लॉट नंबर 163 और 1837 के बंदोबस्त के मुताबिक प्लॉट नंबर 159 और 160 का सर्वे करके रिपोर्ट पेश की जाए.
 26 फरवरी 1991 को कमिश्नर जे पी श्रीवास्तव ने अपनी रिपोर्ट अदालत में पेश की, लेकिन दोनों पक्षों की बहस के बाद हाईकोर्ट ने 8 जुलाई 1991 को ये रिपोर्ट रद्द कर दी और विवादित ज़मीन से जुड़े याचिकाकर्ताओं को सबूत पेश करने को कहा.
अपने-अपने सबूतों के साथ हर याचिकाकर्ता के पास गवाहों की फौज थी. विवादित ज़मीन के पहले वादी गोपाल सिंह विशारद ने 3 गवाह पेश किए, तो निर्मोही अखाड़े ने 20 और देवकीनंदन अग्रवाल ने 16 और सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड ने 28 गवाह पेश कर दिए.
सबूतों और गवाहों की जिरह में वक्त लग रहा था. इसलिए 2002 में अयोध्या ज़मीन विवाद के मुकदमों की रोज़ाना सुनवाई शुरू कर दी गई. हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में सुनवाई तेज़ हुई, तो अदालत ने 5 मार्च 2003 को इस मामले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सबूत ढूंढने की जिम्मेदारी सौंपी और वो भी जल्द से जल्द.
एएसआई की टीम अयोध्या में विवादित परिसर में खुदाई करके ये पता लगाने में जुट गई कि यहां मंदिर था या मस्जिद..? लेकिन, इस खुदाई से भी जुड़ा एक विवाद हाईकोर्ट जा पहुंचा.
अयोध्या विवाद भारत के हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच तनाव का एक प्रमुख मुद्दा रहा है और देश की राजनीति को एक लंबे अरसे से प्रभावित करता रहा है.

भारतीय जनता पार्टी और विश्वहिंदू परिषद सहित कई हिंदू संगठनों का दावा है कि हिंदुओं के आराध्यदेव राम का जन्म ठीक वहीं हुआ जहाँ बाबरी मस्जिद थी.

उनका दावा है कि बाबरी मस्जिद दरअसल एक मंदिर को तोड़कर बनवाई गई थी और इसी दावे के चलते छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई.

इसके अलावा वहाँ ज़मीन के मालिकाना कब्ज़े का विवाद है.

मामले-मुक़दमे अदालतों में चल रहे हैं और इस बीच लिब्राहन आयोग ने अपनी रिपोर्ट दे दी है.

जानिए अयोध्या में कैसे घूमा है समय का पहिया पिछली पाँच सदियों में.

1528:
अयोध्या में एक ऐसे स्थल पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया जिसे कुछ हिंदू अपने आराध्य देवता राम का जन्म स्थान मानते हैं. समझा जाता है कि मुग़ल सम्राट बाबर ने यह मस्जिद बनवाई थी जिस कारण इसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता था.

हिंदू उस जगह पर राम मंदिर बनाना चाहते हैं

1853:
पहली बार इस स्थल के पास सांप्रदायिक दंगे हुए.

1859:
ब्रितानी शासकों ने विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों को और बाहरी हिस्से में हिंदुओं को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी.
1949: भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में पाई गयीं. कथित रुप से कुछ हिंदूओं ने ये मूर्तियां वहां रखवाईं थीं. मुसलमानों ने इस पर विरोध व्यक्त किया और दोनों पक्षों ने अदालत में मुकदमा दायर कर दिया. सरकार ने इस स्थल को विवादित घोषित करके ताला लगा दिया.

1984:
कुछ हिंदुओं ने विश्व हिंदू परिषद के नेतृत्व में भगवान राम के जन्म स्थल को "मुक्त" करने और वहाँ राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया. बाद में इस अभियान का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी के एक प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी ने संभाल लिया.
1986: ज़िला मजिस्ट्रेट ने हिंदुओं को प्रार्थना करने के लिए विवादित मस्जिद के दरवाज़े पर से ताला खोलने का आदेश दिया. मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया.

1989:
विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज़ किया और विवादित स्थल के नज़दीक राम मंदिर की नींव रखी.
1990: विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने बाबरी मस्जिद को कुछ नुक़सान पहुँचाया. तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने वार्ता के ज़रिए विवाद सुलझाने के प्रयास किए मगर अगले वर्ष वार्ताएँ विफल हो गईं.

1992:
विश्व हिंदू परिषद, शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया. इसके परिणामस्वरूप देश भर में हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे जिसमें 2000 से ज़्यादा लोग मारे गए.
1998: प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने गठबंधन सरकार बनाई.

2001:
बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी पर तनाव बढ़ गया और विश्व हिंदू परिषद ने विवादित स्थल पर राम मंदिर निर्माण करने के अपना संकल्प दोहराया.

हिंदू संगठनों के कार्यकर्ताओं ने छह दिसंबर, 1992 को विवादित ढाँचा गिरा दिया था

जनवरी 2002: अयोध्या विवाद सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री वाजपेयी ने अयोध्या समिति का गठन किया. वरिष्ठ अधिकारी शत्रुघ्न सिंह को हिंदू और मुसलमान नेताओं के साथ बातचीत के लिए नियुक्त किया गया.

फ़रवरी 2002: भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अपने घोषणापत्र में राम मंदिर निर्माण के मुद्दे को शामिल करने से इनकार कर दिया. विश्व हिंदू परिषद ने 15 मार्च से राम मंदिर निर्माण कार्य शुरु करने की घोषणा कर दी. सैकड़ों हिंदू कार्यकर्ता अयोध्या में इकठ्ठा हुए. अयोध्या से लौट रहे हिंदू कार्यकर्ता जिस रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे उस पर गोधरा में हुए हमले में 58 कार्यकर्ता मारे गए.
13 मार्च, 2002: सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में कहा कि अयोध्या में यथास्थिति बरक़रार रखी जाएगी और किसी को भी सरकार द्वारा अधिग्रहीत ज़मीन पर शिलापूजन की अनुमति नहीं होगी. केंद्र सरकार ने कहा कि अदालत के फ़ैसले का पालन किया जाएगा.

15
मार्च, 2002: विश्व हिंदू परिषद और केंद्र सरकार के बीच इस बात को लेकर समझौता हुआ कि विहिप के नेता सरकार को मंदिर परिसर से बाहर शिलाएं सौंपेंगे. रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत परमहंस रामचंद्र दास और विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल के नेतृत्व में लगभग आठ सौ कार्यकर्ताओं ने सरकारी अधिकारी को अखाड़े में शिलाएं सौंपीं.
22 जून, 2002: विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर निर्माण के लिए विवादित भूमि के हस्तांतरण की माँग उठाई.

जनवरी 2003: रेडियो तरंगों के ज़रिए ये पता लगाने की कोशिश की गई कि क्या विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद परिसर के नीचे किसी प्राचीन इमारत के अवशेष दबे हैं, कोई पक्का निष्कर्ष नहीं निकला.
मार्च 2003: केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से विवादित स्थल पर पूजापाठ की अनुमति देने का अनुरोध किया जिसे ठुकरा दिया गया.

अप्रैल 2003: इलाहाबाद हाइकोर्ट के निर्देश पर पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने विवादित स्थल की खुदाई शुरू की, जून महीने तक खुदाई चलने के बाद आई रिपोर्ट में कहा गया है कि उसमें मंदिर से मिलते जुलते अवशेष मिले हैं.
मई 2003: सीबीआई ने 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी सहित आठ लोगों के ख़िलाफ पूरक आरोपपत्र दाखिल किए.

जून 2003: काँची पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती ने मामले को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की और उम्मीद जताई कि जुलाई तक अयोध्या मुद्दे का हल निश्चित रूप से निकाल लिया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.

हाईकोर्ट ने आडवाणी पर आपराधिक मुक़दमा चलाने की अनुमति नहीं दी है

अगस्त 2003: भाजपा नेता और उप प्रधानमंत्री ने विहिप के इस अनुरोध को ठुकराया कि राम मंदिर बनाने के लिए विशेष विधेयक लाया जाए.

अप्रैल 2004: आडवाणी ने अयोध्या में अस्थायी राममंदिर में पूजा की और कहा कि मंदिर का निर्माण ज़रूर किया जाएगा.
जुलाई 2004: शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे ने सुझाव दिया कि अयोध्या में विवादित स्थल पर मंगल पांडे के नाम पर कोई राष्ट्रीय स्मारक बना दिया जाए.

जनवरी 2005: लालकृष्ण आडवाणी को अयोध्या में छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस में उनकी कथित भूमिका के मामले में अदालत में तलब किया गया.
जुलाई 2005: पाँच हथियारबंद चरमपंथियों ने विवादित परिसर पर हमला किया जिसमें पाँचों चरमपंथियों सहित छह लोग मारे गए, हमलावर बाहरी सुरक्षा घेरे के नज़दीक ही मार डाले गए.

06
जुलाई 2005 : इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बाबरी मस्जिद गिराए जाने के दौरान 'भड़काऊ भाषण' देने के मामले में लालकृष्ण आडवाणी को भी शामिल करने का आदेश दिया. इससे पहले उन्हें बरी कर दिया गया था.
28 जुलाई 2005 : लालकृष्ण आडवाणी 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में गुरूवार को रायबरेली की एक अदालत में पेश हुए. अदालत ने लालकृष्ण आडवाणी के ख़िलाफ़ आरोप तय किए.

04
अगस्त 2005: फ़ैजाबाद की अदालत ने अयोध्या के विवादित परिसर के पास हुए हमले में कथित रूप से शामिल चार लोगों को न्यायिक हिरासत में भेजा.

लिब्रहान आयोग ने 17 सालों बाद अपनी रिपोर्ट सौंप दी है

20
अप्रैल 2006 : कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार ने लिब्रहान आयोग के समक्ष लिखित बयान में आरोप लगाया कि बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा था और इसमें भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, बजरंग दल और शिव सेना की 'मिलीभगत' थी.

जुलाई 2006 : सरकार ने अयोध्या में विवादित स्थल पर बने अस्थाई राम मंदिर की सुरक्षा के लिए बुलेटप्रूफ़ काँच का घेरा बनाए जाने का प्रस्ताव किया. इस प्रस्ताव का मुस्लिम समुदाय ने विरोध किया और कहा कि यह अदालत के उस आदेश के ख़िलाफ़ है जिसमें यथास्थिति बनाए रखने के निर्देश दिए गए थे.
19 मार्च 2007 : कांग्रेस सांसद राहुल गाँधी ने चुनावी दौरे के बीच कहा कि अगर नेहरू-गाँधी परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री होता तो बाबरी मस्जिद गिरी होती. उनके इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हुई.

30
जून 2009: बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले की जाँच के लिए गठित लिब्रहान आयोग ने 17 वर्षों के बाद अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी.
सात जुलाई, 2009: उत्तरप्रदेश सरकार ने एक हलफ़नामे में स्वीकार किया कि अयोध्या विवाद से जुड़ी 23 महत्वपूर्ण फ़ाइलें सचिवालय से ग़ायब हो गई हैं.

24
नवंबर, 2009: लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश. आयोग ने अटल बिहारी वाजपेयी और मीडिया को दोषी ठहराया और नरसिंह राव को क्लीन चिट दी.
20 मई, 2010: बाबरी विध्वंस के मामले में लालकृष्ण आडवाणी और अन्य नेताओं के ख़िलाफ़ आपराधिक मुक़दमा चलाने को लेकर दायर पुनरीक्षण याचिका हाईकोर्ट में ख़ारिज.

26
जुलाई, 2010: रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद पर सुनवाई पूरी