Thursday, December 2, 2010

बिहार

तो बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश, बीजेपी एंड कंपनी ने 243 में से 206 यानी तकरीबन 85 फीसदी सीटें जीत लीं। लेकिन शायद इससे भी ज्यादा चौंकाने वाला प्रदर्शन तो कांग्रेस का था। 2005 में कांग्रेस ने 51 सीटों से चुनाव लड़ा था और 9 पर जीत हासिल की थी। इस बार उसने सभी 243 सीटों से अपने उम्मीदवार खड़े किए और हाई प्रोफाइल प्रचार अभियान चलाया, लेकिन इसके बावजूद वह केवल 4 सीटें ही जीत पाई। बिहार के सभी कांग्रेस लॉ मेकर अब बड़े आराम से एक नैनो कार में समा सकते हैं। यह हालत उस पार्टी की है, जो केंद्र में काबिज है।

नीतीश की लहर, भाजपा के प्रति मतदाताओं का रुझान, लालू से नाराजगी, जातिगत समीकरण से ऊपर उठने की कोशिश करते बिहार के मतदाता और विकास के पक्ष में जनादेश। अगर इन सबके मद्देनजर बिहार के क्लीन स्वीप पर गौर करें तो माना जा सकता है कि बिहार एक क्रांति के दौर से गुजर रहा है। अलबत्ता वोटिंग के वास्तविक आंकड़ों पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। बिहार में नीतीश-भाजपा गठबंधन ने 39 फीसदी वोट हासिल किए यानी 2 करोड़ 90 लाख वोटों में से 1 करोड़ 10 लाख वोट (सरलता के लिए आंकड़ों को राउंड फिगर में कर दिया गया है)। इसकी तुलना उन लगभग 1 करोड़ लोगों या 34 फीसदी वोटों से करें, जो लोजपा, राजद या कांग्रेस के खाते में गए।

लोजपा, राजद और कांग्रेस पहले भी आपस में गठजोड़ कर चुके हैं। उन्हें एक-दूसरे का करीबी माना जा सकता है और निश्चित ही वे नीतीश-विरोधी हैं। अगर वोटिंग के आंकड़ों पर गौर करें तो नीतीश कुमार को मिला जनादेश उतना भव्य नजर नहीं आता।

इसके क्या मायने हैं? क्या नीतीश और भाजपा को बिहार में अपनी जीत का जश्न नहीं मनाना चाहिए? क्या इसका यह मतलब है कि अविश्वसनीय चुनाव परिणाम महज एक विचित्र संयोग भर थे?

बहरहाल, इससे तो कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव में बिहार के मतदाताओं का झुकाव नीतीश और भाजपा के पक्ष में रहा और उन्होंने लालू और उनके तमाम भाई-बंधुओं के विरुद्ध वोट दिया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विजेता खुद को आरामदेह स्थिति में महसूस कर सकते हैं या आत्मसंतुष्ट हो सकते हैं। न ही इसका यह मतलब है कि पराजितों का सूपड़ा साफ हो गया है। वास्तव में वर्ष 2009 के आम चुनाव में भी अमूमन यही स्थिति थी। चुनाव में यूपीए को स्पष्ट विजेता बताया गया था, लेकिन वोटों के अनुपात के आंकड़े कुछ और ही कहानी बयां करते थे। भारत में चुनाव इसी तरह होते हैं और कोई भी पार्टी अपनी स्थिति को हल्के में नहीं ले सकती। बिहार के चुनाव से दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस को सबक सीखने चाहिए और मतदाताओं को भी।

जहां तक भाजपा का सवाल है (जो अब केंद्र पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है), उसे आत्मसंतोष की स्थिति से बचना चाहिए। यह सच है कि हवा का रुख उनकी तरफ है, लेकिन यह अब भी कोई आंधी नहीं है। कर्नाटक जैसी घटनाएं उनकी राह में रोड़ा साबित हो सकती हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री को हटाने से पार्टी को नुकसान हो सकता था, लेकिन उन्हें नहीं हटाने पर भाजपा को इसका और ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि यह ‘ब्रांड बीजेपी’ को चोट पहुंचा सकता है और उस तमाम वैधता और परिपक्वता को नुकसान पहुंचा सकता है, जो उसने पिछले एक वर्ष में अर्जित की।

कांग्रेस को यह सबक सीखने की जरूरत है कि उसे किस तरह के सहयोगियों के साथ नाता रखना है, क्योंकि बुरे सहयोगियों के न होने के बाद भी उनके बुरे प्रभाव देर तक बने रहते हैं। बिहार में कांग्रेस ने अकेले ही चुनाव लड़ा था, लेकिन मतदाता लालू-कांग्रेस गठजोड़ को भुला न सके। कांग्रेस के लिए इस बारे में विचार करना भी जरूरी है कि राहुल गांधी का किस तरह इस्तेमाल किया जाए। बिहार में उनके प्रचार अभियान का कोई असर नहीं पड़ा। उनका व्यक्तित्व आकर्षक है और निश्चित ही वे एक अच्छे खानदान से वास्ता रखते हैं, जो कि भारतीयों को पसंद है।

आमजन के साथ घुलने-मिलने के उनके प्रयासों को भी सही ठहराया जा सकता है। शायद इतना सब करने के बाद उन्हें यह लगे कि वे भविष्य के प्रधानमंत्री हो सकते हैं, लेकिन दबी जुबान से अब यह सवाल पूछा जाने लगा है कि उन्होंने अभी तक आखिर किया ही क्या है? राहुल गांधी को जल्द ही कोई ठोस जिम्मेदारी लेनी चाहिए और उसमें अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करना चाहिए। उन्हें युवाओं के आदर्श के रूप में प्रचारित जरूर किया गया, लेकिन उन्होंने इतने बड़े-बड़े घोटालों में अपनी पक्षधरता स्पष्ट करने का कोई प्रयास नहीं किया। शायद उन्हें बेदाग बनाए रखने के लिए रणनीतिपूर्वक उनसे चुप रहने को कहा गया हो, लेकिन आखिर कौन यूथ आइकॉन ऐसा होगा, जो देश को लूटे-खसोटे जाने के बावजूद चुप्पी साधे रहेगा? युवा पीढ़ी उनसे उम्मीद कर रही थी कि वे एक ठोस बयान देंगे या कम से कम गलतियों को स्वीकारते हुए अपनी विनम्रता का परिचय तो देंगे ही। इसके उलट उनकी हालिया छवि तो यह है कि वे अपने ब्लैकबेरी से खेलते हुए पत्रकारों के सवालों से कतराकर निकल रहे हैं।

हालांकि बिहार का सबसे जरूरी सबक तो मतदाताओं के लिए है। मैं प्रबुद्ध भारतीय मतदाता उसे कहता हूं, जो शिक्षित हो, जाति, धर्म या समुदाय के आधार पर वोट नहीं देता हो, जो किसी एक राजनीतिक दल का बंधक न हो, जिसका अपना एक स्वतंत्र दृष्टिकोण हो और जो राजनीतिक दलों के प्रदर्शन के आधार पर ही उन्हें वोट देता हो। यदि आप यह कॉलम पढ़ रहे हैं तो आप एक प्रबुद्ध मतदाता के रूप में अपना आकलन कर सकते हैं। अब जरा प्रबुद्ध मतदाता की तुलना निष्क्रिय मतदाता से करें। निष्क्रिय मतदाता वह है, जो अव्वल तो वोट ही नहीं देता, और अगर देता भी है तो उस राजनीतिक दल को, जिसका उसके परिवार द्वारा परंपरागत रूप से समर्थन किया जाता रहा है।

या वह किसी ऐसे उम्मीदवार को वोट देता है, जो उसकी जाति या धर्म का है, या जिसने चुनाव के ऐन पहले उसे शानदार पार्टी दी है। निष्क्रिय मतदाता सरकार के प्रदर्शन का आकलन नहीं करता। जाहिर है आज भी भारत में प्रबुद्ध मतदाताओं की तादाद निष्क्रिय मतदाताओं की तुलना में बहुत कम है और इसका कारण है शिक्षा का अभाव, जागरूकता में कमी और पक्षपात की प्रवृत्ति। लेकिन प्रबुद्ध मतदाताओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। पिछले आम चुनाव में 30 करोड़ लोगों ने मतदान किया था। यदि इनमें से 10 फीसदी मतदाता भी प्रबुद्ध और जागरूक होंगे तो वोटों के अनुपात में कड़ी प्रतिस्पर्धा की स्थिति को देखते हुए उनका योगदान महत्वपूर्ण होगा। इसका सीधा-सीधा मतलब यह है कि चुनाव में जीत का आधार किसी पार्टी द्वारा किया गया प्रदर्शन ही होगा। यह स्थिति पहले ही कुछ राज्यों में देखी जा चुकी है। बिहार चुनाव के नतीजे रोमांचक थे। उम्मीद की जानी चाहिए कि राजनेता और मतदाता इनसे जल्द ही सबक लेंगे।